सच का परचम :: समीक्षाएँ

पुस्तक समीक्षा – ‘’सच का परचम’’ ( ग़ज़ल संग्रह – अभिनव अरुण ) - समीक्षक - ज़हीर कुरैशी - भोपाल



आज जबकि पुस्तक प्रकाशन एक व्यवसाय मात्र होकर रह गया है और महँगी
होती पुस्तकें पाठकों से दूर होती जा रही हैं अंजुमन प्रकाशन , इलाहाबाद
ने साहित्य सुलभ संस्करण के अंतर्गत मात्र बीस रुपये में ११२ पेज की
पुस्तकों के प्रकाशन का स्तुत्य एवं स्वागत योग्य कार्य प्रारंभ किया है
| इस योजना के अंतर्गत ही अभिनव अरुण के ग़ज़ल संग्रह ‘’ सच का परचम ‘’ का
प्रकाशन किया गया है | ‘’सच का परचम’’ फहराने की ज़िद करने वाले ग़ज़लगो
अभिनव अरुण निःसंदेह ग़ज़ल – संसार में एक विरल उम्मीद जगाते हैं | अभिनव
अरुण की ग़ज़लें समकालीनता की शर्तें पूरी करती हैं और उन्हें हम मुक्त कंठ
से समकालीन ग़ज़लें कह सकते हैं | अच्छी ग़ज़ल कहने के लिए ‘अरूज’ के स्तर पर
जिस तरह की तैयारी होनी चाहिए वह अभिनव के पास है | अरूज के बाद कथ्य के
स्तर पर हमारी वर्तमान जटिल ज़िन्दगी की पड़ताल बखूबी उनके शेर करते हैं |
मानवीय रिश्ते उनकी शायरी का प्राण तत्व हैं | उनके शेरों के ‘ शेड्स ‘
बहुआयामी हैं | अगर उनके शेर वर्तमान राजनीति के गिरते स्तर पर कटाक्ष
करते हैं  , तो हमारे घर आ घुसे बाज़ार पर भी उनकी नज़र है | वे आधुनिक
टेक्नोलॉजी के प्रभाव को भी सलाहियत से अपने शेरो में समाहित करते हैं तो
अंतर्राष्ट्रीयता के संकेत भी उनकी शायरी में मिलते हैं |
      वे महत्वाकांक्षी पतंगों की आत्म – मुग्धता को जानते हैं और उनको
धरती पर लाने की हिमायत करते हैं –

आसमां जाकर पतंगें भूल जाती हैं धरा ,
आपके हाथों में उनकी डोर होनी चाहिए |

      उन्हें पता है कि सबको अपने अपने युद्ध लड़ने ही पड़ते हैं अभिनव का एक शेर –

हालात सिखा देते हैं कुहराम मचाना ,
ख़ामोश मिज़ाजी से गुज़ारा नहीं होता |

        अभिनव अरुण की शायरी में फ़िक्र के जुगनू चमकते हैं | आज के मसाइल
पर उनकी गहरी नज़र है और हालात को बदलने का जज़्बा उनके पास है | उनके अशआर
में एक नयापन है ताज़गी है और इस दुनिया को और खूबसूरत बनाने का स्वप्न
उनकी आँखें निरंतर देखती रहती हैं | अभिनव हमेशा आदमी बने रहना चाहते हैं
, तभी तो कह पाते हैं –

कभी आरज़ू ये नहीं रही कि फरिश्तों सी हो ये ज़िन्दगी ,
बनूँ आदमी तो वो आदमी जो नज़र से अपनी गिरा न हो |

कुल मिलाकर ‘ सच का परचम ‘ ग़ज़ल संग्रह के बहाने अभिनव अरुण पहली ही नज़र
में भा जाने वाले विरल ग़ज़लकार के रूप में रेखांकित किये जा सकते हैं |



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''सच का परचम''........गजलों का संकलन।-----समीक्षा



किसी भी पुस्तक की समीक्षा उसका गहन अध्ययन, मनन एवं समकालीन परिवेश के परिपेक्ष्य में सामाजिक सरोकारों, उपयोगिता आदि पर मीमांसा के फलस्वरूप विषयगत विचारों की कसौटी पर खरा उतारने का प्रयास होता है। किन्हीं परिस्थितियों में लेखक के साथ  व्‍यक्तिगत सम्बन्ध, लगाव को लेकर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है, किन्तु समीक्षक सदैव ही सत्यनिष्ठ एवं तटस्थ होकर पुस्तक का विश्लेषण करता है।

वास्तविकता तो पाठक के हाथ में पुस्तक उपलब्धता से स्वत: प्रमाणित हो जाता है।  हां! यह अवश्य है कि किसी भी पुस्तक की समीक्षा पढ़ने के उपरान्त उसकी गंभीरता व उपयोगिता को समझना आसान हो जाता है। वास्तव में, यदि हम पुस्तक की समीक्षा को दरकिनार कर दे, तो भी इसका सद मूल्यांकन सर्वथा सच्चे पाठक द्वारा ही आंका जा सकता है। समीक्षक तो केवल पुस्तक के विभिन्न पहलुओं पर विस्त ृत विचारों एवं शैली आदि का संक्षेप में परिचय कराता है। गजल कहना और लिखना बहुत ही आसान है किन्तु उसके लालित्य, भाव, वज्न, काफिया, रदीफ, व व्याकरण आदि को उसके पृष्ठभूमि के आधार पर निभाना तथा इता व शुतुर्बा आदि विभिन्न दोषों पर नियंत्रण करना दीर्घकालीन शतत प्रयासों से ही साधा जा सकता है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण की बात है उन गजलों को पुस्तक के रूप में लाना जैसे कश्ती को सागर में चलाना तथा कोयले के पत्थर को तराश कर हीरा बनाने जैसा ही साहसिक कार्य है।

श्री अभिनव अरूण जी की गजलगोर्इ पुस्तक 'सच का परचम' को पढ़ने के उपरान्त उसके विभिन्न आवश्यक पहलुओं पर चर्चा कर रहा हूं। यधपि कि पुस्तक के पृष्ठ भाग पर उलिलखित है कि आप समकालीन प्रगतिशील गजल लेखन के सशक्त चर्चित हस्ताक्षर के साथ ही साथ साहित्य व आकाशवाणी के कार्यक्रमों में मंच संचालन तथा प्रस्तोता कमेंटेटर भी है।  इस लिहाज से भी गजलगोर्इ में इनकी भिज्ञता छिपार्इ नहीं जा सकती। आपने बेहद ही मृदु और नम्र भाव से सामाजिक मुददों को सशक्त रूप में पाठक के समक्ष रखा है। यहां एक बात अवश्य ही स्पष्ट करना चाहूंगा कि जब किसी भी लेखक की प्रथम कृति प्रकाशन की प्रकि्रया में होती है, तो वह अत्यधिक भावातिरेक में असहज हो जाता है। फलत: उससे कुछ ऐसी भूलें हो जाती हैं जिसकी वजह से एकाध शेर अथवा आंशिक दोष के कारण पूरी गजल अथवा सम्पूर्ण पुस्तक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और प्रश्न चिन्ह लग जाता है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। यह भी सही है कि मात्रा, पार्इ, शैलीगत दोष व्याकरण अथवा छपार्इ दोष आदि को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता है। अतएव पुस्तक के प्रकाशित होने के पूर्व ही गंभीरता से लिपि को पढ़ लिया जाना चाहिए क्योंकि पुस्तक प्रकाशित और लोकार्पण हो जाने के पश्चात उसे दुरूस्त किया जाना सम्भव नहीं होता है।

श्री अभिनव अरूण जी ने जिस तरह की गजल कही है, वह अत्यन्त सरल, सरस और हृदयग्राही हैं- जिसे सच का परचम कहना ही बेहतर है......।
अब किसी रूमाल में मिलती नहीं,
प्रेमिका के हाथ की तुरपाइयां।

गजलकारों की पंकित में स्वयं को स्थापित करते हुए बेझिझक कहते हैं......
''कहकहों में आप जब मशगूल थे,
बज्म में चुपचाप 'अभिनव आ गया।''

एक सशक्त गजलकार का यह दायित्व होता है कि वह समाज में फैले जटिलताओं को सहजता से बयां करे और ऐसा करने में आप सफल भी हुए है....
''छत से निकला आसमां पर छा गया,
वो धुआं था रोशनी को खा गया।

जन-जन के हृदय की असीम पीड़ा को उजागर करने में शेर प्रभावित करने में सक्षम भी हुर्इ है-
''अकेला सच का परचम हो रहा हूं,
मुकाबिल ये जमाना हो गया है।

आपने गजल की जमीनी तह और उसके नब्ज को बखूबी टटोल कर परखने में सफल भी हुए है-
मुहब्बत, हां कभी मुझको हुर्इ थी,
अभी तक जख्म को सहला रहा हूं।
मुहब्बत की जमीं मेरी नहीं पर,
गजल में गालिबन मीठा रहा हूं।

गजल की मिठास, आत्मीयत, समर्पण और बुजुर्गों के प्रति सम्मान की भावना से ओत-प्रोत सकारात्मक आशानिवत दिशा में अर्ज करते है-
दो जहां की खुशी कमा लाया,
पांव मां के छुए दुआ लाया।

श्री अभिनव अरूण जी ने एक प्रगतिवादी, समसामयिक गजलकार के रूप में स्वयं को पाकर दृढ़ता से आवाहन करते हैं-
आसमां में सुराख होगा जरूर,
तीर तरकश से तो निकालिए।

एक सच्चे साहित्यकार होने के नाते ही समाज की तमाम विकृतियों को उजागर करते हुए उसका समाधान भी बड़ी सहजता से बताते हैं-
तंग गलियों में भी पहुंचेगी तरक्की की किरण,
पहले तो उन गलियों में हम आना-जाना सीख लें।

किसी भी विधा को परखने के लिए उस्तादों की वकालत करते हुए कहते है-
जाने कैसी किताब ले आए,
दोस्ती का हिसाब ले आए।

ओ0बी0ओ0 के आभासी दुनियां की पृष्ठ भूमि पर सकारात्मक साहितियक चर्चा को ध्यान में रखते हुए आप की यह धारणा बन गर्इ है कि जब तक किसी विषय, विधा और संस्कृति आदि पोस्ट पर सम्यक विचार विमर्श से उसकी उपोगिता न साबित हो, उसे अम्ल में लाना साहित्य की दृषिट में उचित नहीं है-
भला कैसे गजल होगी मुकम्मल,
सितम उसने अभी ढाया नहीं है।''


अन्त मे बस इतना कहूंगा कि- "सच का परचम" में उदघाटित अशआरों के माध्यम से श्री अभिनव अरूण की गजलों में कशिश है, शीरींपन है, सहजता और तेवर के साथ साथ ही पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट करने में भी सक्षम हैं। अत: आपका साहित्याकाश में सुदूर तक विचरण करने हेतु प्रथम पदार्पण है जो अबाध गति से लम्बा सफर तय करने में मील का पत्थर जैसा ही है। आपकी लेखनी व भावों कों मेरा शत-शत नमन है। इसी के साथ मैं आदरणीय श्री अभिनव अरूण जी को शुभकामनाओं सहित हार्दिक धन्यवाद व बधार्इ देता हूं और आशा करता हूं कि आपका यह सफर अबाध्य गति से निरन्तर चलता रहेगा।



द्वीतीय वर्षगाँठ

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