परों को खोलते हुए १ : समीक्षाएँ

खुलते परों के सामने का आकाश - गुलाब सिंह


परों को खोलते हुए’ हिन्दी के पन्द्रह कवियों का महत्वपूर्ण समवेत संकलन है. छन्द मुक्त काव्य में लयात्मक प्रवाह के साथ सघन वैचारिकता को  ’सार्थक वक्तव्य’ के  धरातल से रसात्मकता की ओर ले जाने पर उसकी पठनीयता और ग्राह्यता बढ़ जाती है. संकलित रचनाओं में इस वैशिष्ट्य को प्रायः हर रचना में देखा जा सकता है. गम्भीर अध्येता सुकवि श्री सौरभ पाण्डेय जी ने इन कविताओं के चयन और सम्पादन करने में जो श्रम किया है, उसकी सार्थकता पाठक को पूरी तरह आश्वस्त करेगी. समय के साथ बदलती प्रवृतियों की लय को आत्मसात कर कविता जीवन-राग निर्मित करती है. जीवन के साथ कविता का यह जुडा़व ही पाठकीय अनुराग का आधार होता है.
अपने आकाश में अपनी उडा़न का संकल्प पंख खोलने पर ’सारे आकाश’ के परिदृश्य से जोड़ता है. बेशक इसने रचनाकारों के आज के बहुआयामी जीवन के विविध पक्षों को विषयवस्तु के रूप में चुन कर उन्हें अपने रचनात्मक कौशल से प्रभावी अभिव्यक्ति दी है. परों को खोलने के पहले परों को तोलना भी पड़ता है, कहना होगा कि इसका अभिज्ञान भी इन्हें है. मनुष्य गिरने के लिये नहीं, उठने के लिये बना है इसलिये आज हिंसा, लूट, टकराव, मूल्य और चरित्र-क्षरण का जो दौर दिखायी पड़ रहा है, वह बदलेगा, इस संकलन के हर कवि में यह सकारात्मक चेतना स्पष्ट दिखाई पड़ती है. जीवन के प्रति आस्था की यह डोर ही एक मूल्यवान सम्बन्ध है.
संपादक ने हर कवि की रचनाओं के लिये जो संक्षिप्त किन्तु सूत्रवत प्रवेशिका दी है वह कवि के सर्जनात्मक निजत्व का परिचय है, जो रचना और पाठक के बीच कोई हस्तक्षेप न हो कर एक तटस्थ संकेत देता है.

भाषा, शिल्प, कथ्य और प्रस्तुति की विविधता का ध्यान रखते हुये संपादक ने चुनी हुई रचनाओं में संप्रषणीयता को तरजीह दी है. प्रयोग और अद्वितीयता के फेर में कविताओं में की गयी कारीगरी ने जो पाठकीय उदासी पैदा की थी उसे समाप्त करने के लिये संप्रेषण को महत्व देना आवश्यक हो गया है, क्योंकि चुनौती सरल को क्लिष्ट बनाने की नहीं क्लिष्ट को सहज करने की है. सहजता सिद्धि का परिचायक है. कवि अपने समय का पारखी होता है, उसके साथ चलता है और उससे आगे भी झांकने की चेष्टा करता है.

कवि अरुण कुमार निगम आज की सुप्त संवेदना को करुणा भरी आत्मीय अंगुलियों से छुते हुए उकसाते हैं. अपने एक शब्द चितेरे द्वारा- ’बीन बीन कर घूरे और कूडॆ़ -करकट से/ कुछ टुकडे़ रंगों के ढोकर कांधे पर/ उसका बचपन चला सजाने जीवन.’ ऎसे दृश्यों पर उसी कवि की दृष्टि पड़ती है, जिसके हृदय में मानवीय प्रेम का तरल स्पर्श है. ’मन की छुअन’ कविता में वे कहते हैं-- ’भावनाओं की आंधियां अब थम चलीं/ मर्म-सिन्धु में छिपी एक सीप को/ छू लिया तुमने सहज/ बंद पलकें खुल उठीं/........वाह! कितनी शीतल है  मन की छुअन.

इसी तरह परम्परा और लीक से हटकर वैचारिक ताप से दीप्त भाषा प्रेम को केवल शब्द नहीं अर्थ भी देती है जब अरूण श्री कहते हैं-- प्रेम नहीं कहलाता/ कठोरता और लिजलिजेपन के बीच का अन्तराल/ प्रेम वो है--जो दिख रहा है/ अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत.’

आज के बिखरते हुए जीवन में सब से अधिक रिश्ते ही टूटे हैं. रंगीन और बदरंग चेहरों की भीड़ के बीच आत्मीयता की खोज कितनी कठिन हो गई है-- ’अंधेरी सुरंग में अब रिश्तों की डोर के सिरे खोजना/ टूट गये इन्द्रधनुष/ बिखरे शीशों में अब भी चमकते थे भुतेरे चेहरे/ लेकिन कोई अपना नहीं / ’  लेकिन निर्सम्बन्धों के इस अंधेरे से निकल कर प्रकाश की तलाश में बढ़ना ही जीवन है-- ’दिन के उजाले में/ किस सूरज के गुमान में/ कण कण का तिरस्कार कर रहे हो?/ कुछ ही देर में/ होने वाला है अंधेरा.......बढे़ चलो! धाए हुये सवेरा’--कुन्ती मुखर्जी.

आज की सामाजिक विद्रुपताओं के साथ अव्यवस्था का तांडव कितना पीडा़दायक है ! केवल प्रसाद सत्यम की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-- ’पुलिस प्रसाशन कानून सब/ हो जाते हैं पंगु और लाचार/ और तब पूरा कुनबा/ हो जाता मन से बीमार/ यही है-- सत्ता का सार ! ’ सारी अभिव्यक्तियों के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है. इसी अनकहे को कहने का प्रयत्न करता है कवि.

गीतिका वेदिका के शब्दों में-- ’जो लिख रहा/ क्या यही सत्य है?/ जो दिख रहा/ क्या यही सत्य है? नहीं/ बहुत कुछ और भी है/ अनलिखा, अनदेखा, अनजाना.’ जीवन के तमाम सच समर्थ भाषा का सम्बन्ध पा कर साकार होते है और हमारे सोच-विचार में चमक पैदा करते हैं.

तरूण कवि सज्जन धर्मेन्द्र की रचनायें इसका साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं-- शब्द एक दूसरे से जुड़ कर तलवार बनाते हैं/ विलोम शब्दों का कत्ल करने के लिये....आईने के सामने आईना रखते ही/ वो घबरा कर झूठ बोलने लगता है,  एक दूसरे संदर्भ उनकी कहन का ऎसा ही तेवर-- ’सारी नदियाँ/ इस मौसम में/ तुम्हारे काले बालों से निकलती हैं/ फ़िर भी मेरी प्यास नहीं बुझती

अपनी सीमाओं से बाहर निकलने पर जो निस्सीम अनन्त विस्तार दिखाई पड़ता है उसमें आत्मसात होने की झलक पाने की चेतना एक दार्शनिक पहलू मात्र नहीं है बल्कि सच्चाई से साक्षात्कार का एक अवसर भी है-- ’बोल में शब्द हूँ/ ध्वनि में निश्शब्द हूँ/ चर्चा में प्रश्न हूँ/ संवाद में उत्तर हूँ/ खोजता हर जगह मृग कस्तुरी की तरह/ वो है मेरे अन्दर फ़िर भी अन्जान हूँ/ कैसे पहचानूँ कि मैं कौन हूँ’-- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा. अथवा, काश ! टूट जाये ये दीवार/ और/ हो उन्मुक्त उड़ चलूँ मैं/ भाव पंख पसार/ आकाश के विस्तार में/ क्षितिज नापते/ स्वयं ही विस्तार हो जाने’-- डा. प्राची सिंह.

सब कुछ सहने और कुछ भी न कहने की प्रवृत्ति उस आत्महन्ता मौन तक ले जाती है जो व्यवस्था के कांइयेपन को ताकत देता है. इस निरीहता को छोड़कर आवाज उठाने और खडे़ होने की प्रेरणा भी कविता देती है. प्रतिकार से दूर रहने वाला आम आदमी अपनी सीमाओं में ही घिरा रहता है. बृजेश नीरज के शब्दों में-- ’छत को देखते/ नापता है आकाश/ कमरे की फ़र्श के सहारे/ भांपता है धारती का व्यास/ देखा है उसने ताजमहल/ और अमरीका भी/ तस्वींरो में’ 
इस यथास्थिति के खिलाफ़ बृजेश नीरज का कवि प्रेरित करता है-- ’लेकिन चीखो/ फ़िर/ पूरी ताकत लगाकर.... लगे कि जिन्दा हो.
सारे आदर्शों की बात करने वाला पुरुष प्रधान समाज आज भी नारी के प्रति ’योग्य’ दृष्टिकोण से नहीं उबर सका. यह कितना पीड़ादायक है-- आदम की भूख/ उम्र नहीं देखती/ न देखती है/ देश-धर्म-जात/ बस सूँघती है/ मादा गंध’  इसी तरह महिमा श्री अपनी दूसरी रचना ’तुम्हारा मौन’ में असंपृक्ति का चिंत्रण करती है-- ’तुम्हारा मौन/ विचलित कर देता है/ मन को/ सुनना चाहती हूँ तुम्हें/ और मुखर हो जाती हैं दीवारें, कुर्सियां, दरवाजे/ टेबल-चमचे.../ सभी तो बोलने लगते हैं सिवाय तुम्हारे’.

कवयित्री वंदना तिवारी आत्म-परमात्म शक्ति की ओर उन्मुख हो ’सद्भावे, साधुमावे च’ के रूप में कहती हैं- ’जब जिंदगी के किनारों की/ हरियाली सूख गई हो/ पसी मौन हो कर/ अपने नीडॊं में जा छिप हों/ सूरज पर ग्रहण की छाया/ गहराती ही जा रही हो......तब मेरे प्रभु/ मेरे होठों पर हँसी की/ उतनी रेखा बनाये रखना’.

’घाव समय के’ कविता में विजय निकोर ने अमिट घावों की ओर संकेत दिया है-- ’अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे/ अनगिनत घाव जो वास्तव में भरे नहीं/ समय को बहकाते रहे/ पपडी़ के पीछे थे हरे/ आये गये रिसते रहे/
इसी बेबसी की एक स्थिति को उन्होंने प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है-- ’आज मैने डाल पर देखा/ कोई उदास आँखों वाला रक्ताक्त पक्षी/ आशंकित/ झिझक रहा था लौट आने को डाल पर/ और फ़िर जा बैठा उसी डाल पर/ क्षत विक्षत हुआ जिस पर बार-बार’.

जय पराजय के वाद भी समर शेष रह जाता है क्योंकि वास्तव में हार और जीत दोनों शाश्वत सत्य नहीं हैं. सत्य तो समर ही है जो कुछ देता भी नहीं. बार बार मिटाता है और मिटने के लिये आमंत्रित करता रहता है. विन्ध्वेश्वरी प्रसाद त्रिपाठी ’विनय’ इसी चिर संघर्ष की पृष्ठभूमि पर कहते हैं-- ’क्या है जीवन का उद्देश्य/ कैवल्य/ मुक्ति/ स्वर्ग/ तो फ़िर जीवन क्यों?’ अर्थात जीवन जो प्रत्यक्ष और सबसे बडा़ सच है उसमें आच्छादित अपनी सत्ता को पहचान लेने की प्रतिश्रुति-- ’मैं खो चुका हूँ खुद को/ निकलना चाहता हूँ उस आप से/ जो कैद है किसी आवरण के भीतर’--

भीतर अपनी आकाक्षाओं की दुनिया है और बाहर है अनन्त ब्रह्माण्ड का विस्तार. भीतर के टिमटिमाते प्रकाश से जब संसार को प्रकाशित करनेवाले सूर्य का परम प्रकाश जुड़ जाता है तो अपनी ही सत्ता महनीय हो जाती है. शरदिन्दु मुखर्जी के शब्दों में - ’समय की धार पर/ अंधेरे का आँचल पकडे़/ मैं बैठा रहा अपनी इच्छाओं का दीप जला कर/ अडिग अचंचल/ प्राची में उगती/ स्वर्णिम छटा के मधुर स्पर्श ने/ मुझको एक नई औकात दिला दी/’ इसी भाव को वह दूसरे संदर्भ में कहते हैं-- ’यह जन्मदिन है/ स्मृतियों का पीला पतझर/ नये वसंत का आश्वासन औ’ कोमल पत्रों का मर्मर/ कौन भेजता मौन निमंत्रण/ किसका यह सस्वर संकेत

समय तो सब से मूल्यवान वही है जो हमारे साथ है जिसमें हम साँस ले रहे हैं. हमारी भविष्यदृष्टि भी इसी पर निर्भर है. ’गया वक्त फ़िर हाथ आता नहीं’ इसीलिये साथ चलते एक-एक क्षण को पूरी शिद्दत से जी लें, उससे जो पाना है पा लें. शालिनी रस्तोगी की पंक्तियाँ देखिये-- ’अतीत के अंधकार में/ तो कभी/ भविष्य के विचार में/ भरमाते हम/ खो देते हस्तगत/ वर्तमान के/ मोती अनमोल.’

उपर्युक्त विवरण में उद्धरण के रूप में कुछ बानगी ही दी जा सकी है. अधिसंख्य रचनायें उद्धरणशीलता (कोटेबिलिटि) की शक्ति रखती हैं. तमाम भीमकाय समवेत संकलनों की भीड़ में कलेवर में यह छोटा संग्रह अपनी अलग पहचान रखता है. कुछ पुराने अनुभवी कवियों के मध्य ऊर्जावान नये रचनाकार संग्रह में अपने-अपने रंग बिखेरते हैं. इस मूल्यवान संग्रह को संपादित करने के लिये बन्धुवर सौरभ पाण्डेय जी तथा इसे सुरुचिपूर्ण कलेवर में प्रस्तुत करने के लिये अंजुमन प्रकाशन और समर्पित साहित्यकार वीनस केसरी जी बधाई के पात्र हैं.
काव्य-संकलन - परों को खोलते हुए 01
सम्पादन - सौरभ पाण्डेय
प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद
मूल्य - रु. 170/
ISBN 978-81-927746-3-3
संस्करण - प्रथम, पेपर बैक, 2013

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--गुलाब सिंह
ग्रा. - बगहनी,
पो. - बिगहना,
जिला - इलाहाबाद (उप्र)
पिन - 212 305
मो. - 09936379937


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समीक्षा - परों को खोलते हुए-1 : एक पाठकीय प्रतिक्रिया -राहुल देव




हिंदी साहित्य जगत के पंद्रह रचनाकारों का संयुक्त काव्य संग्रह ‘परों को खोलते हुए-1’ मेरे हाथ में है | इस संकलन में हिंदी काव्यजगत के पंद्रह विविध रचनाकारों की चुनिन्दा छन्दमुक्त कविताओं की प्रस्तुति श्री सौरभ पाण्डेय जी के कुशल संपादन
में हुई है |

एक पाठक की नज़र से अगर प्रारंभ से देखना शुरू करें तो सर्वप्रथम अरुण कुमार निगम की कवितायेँ हैं | आपकी कविताओं में एक परिपक्वता है, जोकि कविहृदय की मार्मिक भावाभिव्यक्तियाँ हैं | जीवन-जगत का सूक्ष्म अन्वेषण इनकी कविताओं में देखने को मिलता है |
कुछ पंक्तियाँ जो कि मुझे अच्छी लगीं आपसे बांटना चाहूँगा-
‘धुंधली आँखें/ जर्जर काया/ चप्पे-चप्पे ढूँढा मैंने......(मेरुदंड झुका जाता है शीर्षक कविता से),
सब करते थे प्रेम/ चुप-चुप दोहरी-तिहरी बातें/ एक गाँव हुआ करता था यहाँ !....(कुँए की पीड़ा शीर्षक कविता से)

इस क्रम में अगले रचनाकार अरुण श्री युवा हैं | अपनी विशिष्ट शैली में रची गयीं इनकी कवितायेँ उच्चकोटि की हैं | कविताकर्म के प्रति उनके गंभीर विचारबोध और उनकी संवेदनशीलता भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है | कुछ पंक्तियाँ जो कि मुझे अच्छी लगीं- ...
‘कैसे कहता?/ जिसके लिए लिखता था अब वो रूठ चुका है/ जिस रिश्ते पर अहंकार था- टूट चुका है/ अब तो जितना हो सकता है खुश रहता हूँ/ दिल तो दुखता है लेकिन अब चुप रहता हूँ/ अब मैं दर्द नहीं लिखता हूँ !!’ (कैसे कहता शीर्षक कविता से),
‘मृतपाय शिराओं में बहता हुआ/ संक्रमण से सफ़ेद हो चुका खून/ गर्म होकर गला देता है तुम्हारी रीढ़ !/ और तुम/ अपनी आत्मा पर पड़े फफोलों से अनजान/ रेंगते हुए मर्यादा की धरती पर/............./ तुम्हारे गर्म सांसों का अंधड़/ हिला देता है जड़ तक/ एक छायादार वृक्ष को !/ और फिर कविता लिखकर/ शाख से गिरते हुए सूखे पत्तों पर/ तुम परिभाषित करते हो प्रेम को !/ जबकि तुम्हारी भी मंशा है / कि ठूंठ हो चुका पेड़ जला दिया जाए/ तुम्हारी वासना के चूल्हे में/ जिस पर पकता रहेगा एक निर्जीव सम्बन्ध !....(प्रेम शीर्षक कविता से),
‘...तुम थोड़ी-थोड़ी मुझमे रहती हो/ पास तुम्हारे छूट गया हूँ थोड़ा मैं भी !’ (बची हुई तुम शीर्षक कविता से), ....
’तुम्हारे रुदन और मौन के बीच खड़ा कवि/ लिखना चाहता है-/ प्रेम पर एक जरूरी कविता !’ (एक ज़रूरी कविता शीर्षक कविता से),
मुझे पसंद है कवितायेँ लिखना/.........../मेरा कवि बीमार है शायद ! (मुझे क्षमा करें शीर्षक कविता से)

कुंती मुखर्जी की कवितायेँ समकालीन स्त्री रचनाकारों की परंपरागत सृजनधारा से अलग यथार्थबोध लिए हुए जीवन के बहुआयामी पक्षों को उजागर करती हुई चलतीं हैं | वास्तव में कवि और उसकी कविता का मूल उद्देश्य पाठक या श्रोता के मन में अपनी रचना के माध्यम से बिम्ब ग्रहण कराने का रहता है मात्र अर्थ ग्रहण कराने का नहीं | आपकी कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
‘प्रकृति ! तुम ही आनंद, तुम ही चिरंतन/ जड़-चेतन पाते तुमसे व्यवहार/ तुम ही से होते अरूप/ तुम ही सब कारणों की कारण/ मोह-माया का चक्र परिवर्तन/.....’(प्रकृति शीर्षक कविता से),
‘...मन का भ्रम/ प्यास बन और भटकाएगा/ पथिक !/ शाम होने में अब देर ही कहाँ है ?/ जबकि तुम्हारी झोली खाली है/ सूरज की ओर अब मुड़ के न देखो/ कोई नहीं साथ देने वाला/ कोई नहीं, अपने भी नहीं/ बढे चलो ! पथिक ! बढ़े चलो !!’ (पथिक शीर्षक कविता से),
‘....कुछ तारे लुप्त नहीं होते हैं कभी/ टूट कर भी/ बस जाते हैं दिमाग में/ झटक कर सर अपना/ करतीं हूँ कमरे में उजाला....’(मैं अपने को ढूँढूं कहाँशीर्षक कविता से),
‘इंसान अपने दिल-दिमाग में/ कहाँ से इतनी नफरत और रोष भर लेता है ?/...../ सूना कमरा/ सूनी छत/ एक शून्य घूरने के लिए../ अगर इंसान प्रेम बांटता/ बदले में प्रेम ही पाता/ जोड़ता गर शुरू में/ अंत क्यों होता अकेला ?/ दुःख देकर किसने सुख पाया है ! (विष के बीज शीर्षक कविता से)

जैसा कि संपादक ने भी लिखा है केवल प्रसाद सत्यम एक नैसर्गिक रचनाकार हैं और एक नैसर्गिक रचनाकार कभी आत्मावलोकन करता है तो कभी समाज की विडम्बनाओं से व्यथित उसके अन्दर का कविमन कविताओं के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया करता है | सत्यम की कविताओं में भी यही दृष्टि दिखाई पड़ती है | कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘मैं हूँ कौन?/ मैं हूँ मौन !...’ (मैं हूँ मौन शीर्षक कविता से),
‘....आज तीसरा दिन था/ जब उसने सत्तू की अंतिम मुट्ठी/ लोटे में घोलकर/ पांच बार पी थी/ आज बस बूँद की ताकत पर/ रोजगार की खोज के लिए तैयार हो रहा था’ (रोजगार शीर्षक एक मर्मस्पर्शी कविता से),
‘...अनवरत मानव जीवन/ कुंठित, पद दलित रहा/ इसके भविष्य निर्धारण में/ स्मृतियाँ-व्यवस्थाएं तक/ असफल रहीं’ (अलगाववादी शीर्षक कविता से),
‘दिल्ली में शराब का बेजोड़ असर/ पंद्रह अमर/ निस्शेष पचहत्तर/ तंत्र बेखबर/ प्रशासन तर-बतर...’ (शराब शीर्षक कविता से)

गीतिका वेदिका प्रतिभाशाली व सम्भावनाशील रचनाकार हैं | उनकी कविताओं में स्त्री-पुरुष के पारस्परिक अंतर्संबंधों का अन्वेषण दिखाई पड़ता है | उनकी कविताओं की मेरी कुछ प्रिय पंक्तियाँ आप भी देखें-
‘....तुम्हें देख रहीं हैं मेरी आँखें/ ताक रहीं हैं मेरी राहें/ थामना चाह रहीं हैं बाहें/ लेकिन तुम नहीं हो/ बहुत दूर-दूर तक....’ (सुनो तुम शीर्षक कविता से),
‘....हमारे मिलने की घड़ी/ अधीर हो रही है/ क्या तुम्हें नहीं लगता/ कि हमें अब मिलना चाहिए ?...’ (देर हो रही है शीर्षक कविता से),
‘तुम्हारा नाम नहीं पता/ तुम्हें पुकारूँ कैसे...’ (तुम्हें पुकारूँ कैसे शीर्षक कविता से)

सज्जन धर्मेद्र की कवितायेँ उन्मुक्त हैं, वे बेबाकी से तथ्यों की पड़ताल करते हैं | उनकी कवितायेँ अपने उद्देश्य में सर्वथा सफल हैं | कुछ उदाहरण देखिये-
‘....सिस्टम अजेय है/ सिस्टम सारे विश्व पर राज्य करता है/ क्योंकि ये पैदा हुआ था दुनिया जीतने वाली जाति के/ सबसे तेज और सबसे कमीने दिमागों में’ (सिस्टम शीर्षक कविता से),
‘....जिन्हें हम रंगीन वस्तुएं कहते हैं/ वे दरअसल दूसरे रंगों की हत्यारी होती हैं/...../ जो वस्तु जितना ज्यादा चमकीली होती है/ वो उतना ही बड़ा झूठ बोल रही होती है’ (रंगीन चमकीली चीजें शीर्षक कविता से),
‘...तंत्र के लड़ने के दो ही तरीके हैं/ या तो आग बुझा दी जाय/ या पानी नाली में बहा दिया जाय/ और दोनों ही काम/ पानी से बाहर रहकर ही किये जा सकते हैं/ मेढकों से कोई उम्मीद करना बेकार है’ (लोकतंत्र के मेढक शीर्षक कविता से),
‘....ये देवताओं और राक्षसों का देश है/ यहाँ इंसानों का जीना मना है’ (देवताओं और राक्षसों का देश शीर्षक कविता से),
‘डर हिमरेखा है/ जिसके ऊपर प्रेम के बादल भी केवल बर्फ बरसाते हैं/ हरियाली का सौन्दर्य इस रेखा के नीचे है/ दूब से बांस तक/ हरा सबके भीतर होता है / हरा होने के लिए सिर्फ हवा, बारिश और धूप चाहिए /....../ लोग कहते हैं बरसात के मौसम में पहाड़ों का सीजन/ नहीं होता/ हर बारिश में कितने ही पहाड़ आत्महत्या कर लेते हैं....’ (तुम, बारिश और पहाड़ शीर्षक कविता से)

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा वरिष्ठ रचनाकार हैं इन नाते भविष्य के प्रति उनकी चिन्तादृष्टि सहज ही दृष्टिगोचर होती है | उनके अन्दर के कवि का दर्द उनकी रचनाओं के माध्यम से आमजनों का दर्द बनकर मुखर हुआ है | आपकी कविताओं की कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
‘ भोर हुई/ छायी अरुणाई/ टेसू से कपोल/ मन रहा डोल...’ (लगता है वसंत आ गया शीर्षक कविता से),
‘नहीं जानता इन्कलाब क्या है/ शायद आप जानते हों/ हिंदी उर्दू अरबी फ़ारसी अंग्रेजी, ये कौन सा लफ्ज़ है ?/ पञ्च तत्व है?/ पञ्च इन्द्रियां हैं ?/ पञ्च कर्म हैं/ या मुर्दा कौमों की संजीवनी बूटी है?’ (इन्कलाब क्या है शीर्षक कविता से),
‘पक्षियों का कलरव/ जल प्रपात, समुद्र की गोद में खेलतीं लहरें/ धुआं उगलते कारखाने/ फर्राटा भरती गाड़ियाँ/ शोर हर तरफ घुटता दम/ इसके बीच हम....’ (शांति शीर्षक कविता से),
इसके अतिरिक्त आपकी कविता ‘मैं कौन हूँ ?’ भी मुझे बहुत पसंद आयी |

डॉ. प्राची सिंह की कवितायेँ स्थूल से सूक्ष्म की ओर सतत रूप से प्रवाहमान एक दार्शनिक अंतर्यात्रा के समान हैं | भाव और विचार के कई स्तरों पर उनकी कवितायेँ बेहद प्रभावशाली बन पड़ी हैं | कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
‘...अर्थ की बंदिशों से परे/ ऊर्जित भाव स्पंदन/ अपनी अनुगूंज में/ चिदानन्द संजोये-/ उसके चन्द शब्द !!’ (चन्द शब्द शीर्षक कविता से),
‘प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन/ कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण/ अटल काल पर/ पदचिन्हों की थाप छोड़ता/ बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना.../ बंधन ये अन-अंत पुराना सा लगता है ?/ क्यों एक अजनबी जाना पहचाना लगता है ?’ (अनसुलझे प्रश्न शीर्षक कविता से),
‘....ये अनछुआ चैतन्य ही तो है/ जो ले जा रहा है हमें/ अज्ञान के अन्धकार से दूर/ एक नयी दृष्टि के साथ/ सत्य के और करीब’ (अनछुआ चैतन्यशीर्षक कविता से),
‘....टूट जाए मेरे भीतर/ मेरे ही देह बोध की ये दीवार/ अभी इसी क्षण/ करती मुझे आज़ाद/ हर बंधन से..../काश ! (देह बोध शीर्षक कविता से),
‘....पारदर्शी निगाहों में प्रेमाश्रु लिए/ एकटक निहारती हूँ/ प्रकृति की सम्पूर्णता को/ अक्सर करती/ अनकही अनसुनी अनगिन बातें...(अनगिन बातेंशीर्षक कविता से)

ब्रजेश नीरज की सभी कवितायेँ उच्च यथार्थबोध लिए हुए हैं जोकि उनके मन के भावों का काव्य की छन्द मुक्त शैली में सटीक अंकन हैं | ब्रजेश साहित्य जगत में अपनी सक्रियता तथा रचनाकर्म की विशिष्टता से प्रभावित करते हैं | उनकी कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘आखिरी बार कब चिल्लाये थे तुम/याद है तुम्हें?....../अपनी भूख मिटाने के लिए चिल्लाना ज़रूरी है/ चिल्लाना ज़रूरी है/ अस्तित्व बचाने के लिए’ (चिल्लाओ कि जिन्दा हो शीर्षक कविता से),
‘...खामोश रहना/ जीवन की सबसे खतरनाक क्रिया होती है/ आदमी पत्थर हो जाता है’ (पत्थर शीर्षक कविता से),
‘....गहराते अन्धकार में/ गुमसुम सा मैं/ हिसाब करता रहा/ दिन का लेखा जोखा/ हताश व निराश/ असफलताओं का घेरा/ फिर भी दिल के कोने में/ एक सूर्य दैदीप्यमान है/ अब भी/ कल को प्रकाशित करने के लिए’ (सूरज शीर्षक कविता से)

आगे चलें तो महिमा श्री की कविताओं में वर्तमान दौर की सामाजिक विद्रूपताओं के प्रति छटपटाहट दिखाई पड़ती है | उनकी कवितायेँ कई सवाल करतीं हैं जिनके जवाब हमें ही देने होंगे | इनकी कविताओं की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ‘...चलो एक दीप जला लें/ जुगनुओं को दोस्त बना लें/ अपनेपन के शोर से गुंजित कर लें/ अंतस का कोना’ (अंतस का कोना शीर्षक कविता से),
‘तुम्हारा मौन/विचलित कर देता है/ मन को/ सुनना चाहती हूँ तुम्हें/ और/ मुखर हो जातीं हैं दीवारें, कुर्सियां, दरवाज़े/ टेबल-चमचे.../सभी तो बोलने लगते हैं/ सिवाय तुम्हारे’ (तुम्हारा मौन शीर्षक कविता),
‘रोज अलस्सुबह उठ के जातीं हूँ/ शाम को आती हूँ/ दूर से देखती हूँ/ कहती हूँ/ ओह देखो तो ज़रा/ कितनी भीड़ है/ और फिर/ मैं भी भीड़ हो जाती हूँ’ (भीड़ शीर्षक कविता)

वंदना तिवारी नवागत हैं, उनकी कवितायेँ परम के प्रति भावान्जलियों का अर्पण हैं | उनकी कविताओं में जीवन-जगत व स्वयं के प्रति दायित्वबोध दिखाई देता है | मेरी पसंद की कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘....आज.../भावेश का बहाव बदल गया/ साहित्य का उद्देश्य बदल गया/ परिवेश बदल गया..’ (परिवेश बदल गया शीर्षक कविता से)

विजय निकोर भी इस संकलन के एक वरिष्ठ कवि हैं | उनकी कविताओं में पाठक एक रूमानी जुड़ाव महसूस करता है | प्रकृति, जीवन, जगत और समय के दार्शनिक सरोकारों की बात करतीं उनकी कवितायेँ भाषा, कथ्य व शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट बन पड़ी हैं | कविताओं की कुछ पंक्तियाँ देखें-
‘पिछवाड़े से आकर दबे पाँव जैसे/ तुम करतीं थीं शीशे पर/ टक-टक-टक/ और फिर एक चुलबुली हंसी हवा में/ हवा को मदहोश करती/ बावरी हवा..हंसती चली जाती थी/ आज उसी खिड़की के शीशे पर/ बारिश की बूंदों की टप-टप, टप-टप...’ (बारिश की बूँदें शीर्षक कविता से),
‘....अब मैं शब्दों से नहीं/ शब्दों के प्रकरण से डरता हूँ...’ (मौन में पलने दो)

विन्धेश्वरी प्रसाद त्रिपाठी ‘विनय’ युवा हैं | उनकी कविताओं में उनकी उर्जस्वित विचारदृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है | देखिये-
‘...कुत्सित आवरणों के बीच/तोड़ना चाहता हूँ/ अंतर्द्वंद्वों का इस्पाती घेरा/ जो मेरे स्व को जकड़े हुए हैं/...../ मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ/ क्या कहूँ मैं ?..क्या करूँ मैं ?’ (खुद की तलाश शीर्षक कविता से)

शरदिंदु मुखर्जी भी वरिष्ठ हैं, अनुभवी हैं | उनकी कवितायेँ साहित्य के माध्यम से आदमी में ‘आदमी’ की तलाश करतीं हैं | व्यक्ति के सतत जीवन संघर्षों के बीच उसके सपनों की आने वाली सुबह जिसके पीछे तमाम कटु व तिक्त अनुभव छिपे हुए होते हैं इन सब परिस्थितियों से पार पाने के बाद मिलने वाला आनंद, आनंद मात्र नहीं बल्कि परमानन्द बन जाता है | अंतर्जगत की आँखें खुलने के बाद कुछ भी अज्ञात नहीं होता | अज्ञात से ज्ञात की ओर निरंतर बहने का यह सुखद प्रवाह निश्चित रूप से भावी पीढ़ी का मार्गदर्शक भी बनता है | कुछ पंक्तियों के माध्यम से आप खुद ही देखिये-
‘हकीकत की सफ़ेद दीवार पर/ तजुर्बों की भीड़ ने/ अहसास नाम की/ नन्हीं सी कील ठोक दी थी...’ (एक कील, एक तस्वीर शीर्षक कविता से)

संकलन के अंत में शालिनी रस्तोगी की कवितायेँ हैं, आपकी कवितायेँ स्वयं का मनोवैज्ञानिक आकलन हैं अब इसे ही आप आत्ममन्थन कहें चाहे खुद के जीवन की गति और ठहराव के बीच समय को असम्पृक्त होकर अपने नजरिये से देखते रहने की एक प्रक्रिया | इनकी कवितायेँ आत्मशोधन के माध्यम से इस बात को रेखांकित करती हुई चलतीं हैं जिसके अनुसार, ‘जीवन का इस जगत का सबसे बड़ा सत्य यह है कि आप अकेले हैं !’ कुछ पंक्तियाँ देखें तो-
‘तुमको पढूं तो कैसे/ कोई मतलब निकालूँ तो कैसे/ कि होश में तो तुम्हें लिखा ही नहीं/ और अब/ बार-बार बांचती तुम्हें/ जतन करतीं हूँ/ कोई मतलब निकालने का...’ (अनगढ़-सी इबारत कविता से),
‘...हृदय हर्षाया/ तन की पुलक से/ हरियाई थी दूब/ भावों का अतिरेक/ जल-कण बन/ नयन से टपका/ और ओस बन ठहर गया/ त्रण नोक पर/...’ (आत्म मुग्धा शीर्षक कविता से),
‘...बीते हुए और आने वाले/ लम्हों में खोये/ हम/ वर्तमान में कब जीते हैं ? (हम वर्तमान में कब जीते हैं शीर्षक कविता से) |

पुस्तक का आवरण आकर्षक, मुद्रण स्वच्छ व त्रुटिहीन है | इस संग्रहणीय संकलन के सभी पंद्रह कवि/कवियत्री सृजन के नवोन्मेषशाली पथ के अन्वेषी बनेंगे, ऐसा विश्वास है | अंजुमन प्रकाशन सहित संपादक और सभी शामिल रचनाकारों को मैं इस शानदार प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बधाई और साधुवाद देता हूँ ! पाठकों को इस कड़ी की अगली प्रस्तुति का भी बेसब्री से इंतज़ार रहेगा |

पुस्तक - परों को खोलते हुए - 1 / संपादक - सौरभ पाण्डेय / 160 पृष्ठ / मूल्य - 170 / प्रकाशन - अंजुमन प्रकाशन 

समीक्षक -
राहुल देव
संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य-सदन, कोतवाली मार्ग,
महमूदाबाद (अवध), सीतापुर (उ.प्र.) 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com
मो- 09454112975


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किताब को खोलते ही मेरी नज़र सबसे पहले आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर सर के इन शब्दों पर पड़ी
''इन बून्दों को मोती होना अवश्य है''
इन शब्दों को पढ़ के मैं सरापा रोमांच से भर गया। जी हाँ! कल्पनाओं के सागर की अंतहीन गहराई में डूब के भावनाओं के तूफान को शब्दों में ढाला जाय तो वो मोती बनके ही चमकेंगे। आदरणीय श्री योगराज सर की अनुभवी आँखें धोखा नही खा सकतीं,
“रचनाकार साहित्य के फलक पर आफताब बनकर चमकेंगे'' आदरणीय गणेश जी के ये शब्द इस किताब के रचनाकारों के लिये निस्संदेह प्रेरक का कार्य करते हैं, साथ ही पाठक के मन में किताब को लेकर एक सहज उत्सुकता भी जगाते हैं और मन कई कल्पनायें करने लगता है।
इस किताब को देख कर मुझे मशहूर शायर जनाब इक़बाल साहब का ये शे'र याद आया
''हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा''
जब आदरणीय सौरभ सर के जैसा बागबान हो तो दीदावरी के लिये इंतज़ार की ज़रूरत नहीं। यही वजह थी कि मैं भी ये कहने को मजबूर हो गया

हज़ारों साल के ये फासिले अब के मिटाने को
हुये तैयार कितने गुल यहाँ गुलशन सजाने को
कई आयेंगे दीदावर मुसल्सल अब के बेसाख़्ता
खिली हैं नरगिसें यूँ हुस्न का जल्वा दिखाने को

ये गुल हैं जिनकी कलम से निकला हुआ एक- एक शब्द गुलशन सजाता हुआ सा लगता है, ये नरगिसें हैं जिनकी कल्पनाशक्ति कविताओं का हुस्न है। इस किताब के 15 रचनाकार और सबकी शख़्सियत अलग सोच अलग, और ज़िन्दगी के अनुभव भी अलग- अलग, लेकिन एक चीज़ है जो सभी में समान है, वो है कल्पनाशीलता और छंदमुक्त को लेकर उनकी रचनात्मकता, उनकी समझ। उनसे यदि पूछा जाता कि आपकी श्रेष्ठ रचनायें कौन सी हैं तो शायद सभी पशोपेश मे पड़ जाते क्या कहें, सच कहूँ तो किसी भी रचनाकार के लिये अपनी रचना या रचनाधर्मिता के लिये कुछ भी नकारात्मक कहना आसान नही होता, लेकिन जगह तय है ,तुलनात्मक रूप से सिर्फ श्रेष्ठ कवितायें लेनी हैं l यह बहुत मुश्किल होता है किसी रचना को खारिज करना या चुनना। ये आदरणीय सौरभ सर की पारखी निगाहें थी जिन्होने चुन-चुन के मोतियों को पिरोया और इस किताब के रूप में एक खूबसूरत आभूषण बना।
वैसे तो काव्य की हर विधा मसलन सनातनी छंद, ग़ज़ल, नवगीत या अतुकांत हो आदरणीय सौरभ सर की संलग्नता और समझ काबिले- तारीफ़ है। उनके अनुसार “सभी रचनाकार भावुक होते हैं, किन्तु सभी भावुक रचनाकार नहीं हो सकते। अध्ययन, मनन, मंथन, गठन, तथा संप्रेषण इन पाँच बिन्दुओं से जो रचना नहीं गुज़री, वह पाठक को स्पंदित क्या करेगी।“
उनकी यही समझ और अनुभव संपादन में उभर के दिखता है जिसकी वजह से श्रेष्ठ में भी श्रेष्ठ रचनाओं के चयन में वे कामयाब रहे हैं। इस किताब में चयनित कवितायें इन मानकों पर खरी उतरती है l        
हर कवि ने अपनी हर रचना के लिये न जाने कितनी मेहनत की होगी कितनी रातें खराब की होंगी, उनकी रचनाओं के बारे में चंद शब्दों में बयान नही किया जा सकता। अंजुमन प्रकाशन और ओ बी ओ के प्रयासों और संपादक आदरणीय सौरभ सर के संपादन के फलस्वरूप एक बेहतरीन किताब सामने आई है। अतुकांत कविताओं का ये एक बेहतरीन संग्रह है। किसी किताब की समीक्षा करूँ मेरा कद न इतना बड़ा है और न ही मेरी ये हैसियत है, ये बतौर पाठक परों को खोलते हुये-1 की मेरी प्रतिक्रिया है।



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''परों को खोलते हुए'' की काव्यात्मक समीक्षा....................आदित्य चतुर्वेदी........समीक्षक


''परों को खोलते हुए'' की काव्यात्मक समीक्षा....................आदित्य चतुर्वेदी........समीक्षक
//1//

देखिए तीस परों को खोलते हुए
अक्षर-अक्षर को स्वयं से, तोलते
हुए
कह गए ये दर्द सारा, इस जहां का,
ओ0बी0ओ0 आकाश में खुद डोलते हए।।

//2//

पीत पट की लालिमा मुख पृष्ठ की
हो प्रमुख यह द्वार ज्यों नवसृ-िष्ट की
रच दिया लम्बा वितान साहित्य का
सोच मौलिक चिर निरन्तन दृ-िष्ट की।।

//3//

पन्द्रह रत्नों में प्रथम काव्यारत्न हैं अरूण
सप्त रचनाओं का किया जिसने वरण
'सावन' 'मेरूदण्ड' 'जीवन' 'मन की छुवन'
'कूप' के 'रिश्तों' , तरफ बढ़ते चरण।।
//4//

'कैसे कहता' 'प्रेम' में 'बची' हुई 'कविता'
अन्तर्मन संवाद की कहती है सरिता
'बीमार पीढ़ी' साथ में 'क्षमा करें'
जो स्वयं से अंजान दिखती अरूण सविता।।
//5//

साहित्य 'पथिक' ये मॉरिशस की बाला हैं
'चांद' 'प्रकृति' की ''त्रुटि', तपन की ज्वाला हैं'
'अपने को ढूंढों' अपने अन्तर्मन में
शब्दों-शब्दों की व्यथा, गजब कह डाला है।।
//6//

'मैं हूं मौन' मौन है के0पी 'सत्ता सार' के गलियारे से
'बेरोजगार' हो गई भावना, 'दंगा' दूध' किनारे से
वो 'मासूम सा बच्चा' 'अलगाववादी' चक्राे में
धन्य हो गई रचना तेरी, हम तो जिए इशारे से।।
//7//

'सुनो तुम' गीतिका 'देर हो रही', मंजिल तुमसे दूर नहीं
'तुम्हारे कंधे' बंधी निराशा, खुद से तुम मजबूर नहीं
सजग लेखनी तुम्हें पुकारे मन का पीर अक्षर बन जाये
'सत्य सार' 'सदियों' से कहती है बात, पर गुरूर नही।।
//8//

धन्य हुए धर्मेन्द्र जी, 'सिस्टम' हुआ खराब
'चमकीली रंगीन' का रंगत खुश्बो आब
'लोक तंत्र के मेढक' 'तुम्हारी बारिश' के साये
साधुवाद कविवर बाकी सब है हाय!........।।
//9//

'लगता बसंत आ गया' फिर काहे 'दुर्भाग्य'
प्रदीप 'स्पर्श उम्मीदों का' उदित हुआ सौभाग्य
'इन्कलाब' 'जीवन-मृत्यु' स्वयं परचम 'शान्ति' का
उत्तम रचना, श्रेष्ठ विचार बहा दिया बैराग्य।।
//10//

प्राची के 'अनसुलझे प्रश्न' 'चंद शब्द' आ गये
'अनछुआ चैतन्य' में छायावाद पा गये
'देह बोध' 'जाने क्यों 'अनगिनत बातें कहीं
छोड़ धरा उसी क्षण, आकाश में हम आ गये।।

//11//

'हांफता-कांपता सा दिख रहा था 'हाथी'
'कुम्हार' की व्यथा को शब्द दे गये साथी
'चिल्लाओ कि जिन्दा हो' जरूरत है बृजेश
'सूरज' 'पत्थर' चांदनी शत-शत नमन है साथी।।
//12//

महिमा 'प्रवंचनाएं' 'दोराहे पर लाती हैं
'तुम स्त्री हो' बहुत कुछ कह जाती है
'स्मृतियों' में 'अंतस का कोना' 'तुम्हारा मौन' नही
'सर्द धरती' बुलंदी की मीनार नजर आती है।।
//13//

'कांपते उर' 'चिरानन्द' वैचारिक नन्दन है
'अंश हूं तुम्हारा' 'मां' का शत अभिनन्दन है
'जिंदगी की राह' में 'द्वन्द' तो होते हैं
लिखती रहो वन्दना, भविष्य का वन्दन है।।
//14//

'बारिश की बूंदे' अतीत की यादें
'घाव समय की' करती फरियादें
'मौन पलने दो' यादें विजय की
'रक्तधार' निजत्व की, पीड़ा की खादें।।
//15//
'निशा का नाश' अवश्य होता है
शीतलता में तपन का सोता है
व्यंग्य की धार 'पुरानी हवेली'
लिखती है लेखनी कवि मन रोता है।।
//16//
'एक कील एक तस्वीर' का एहसास है
शरदिन्दु की रचना उत्तम और खास है
'आशंका' 'औकात' की 'तस्वीर' क्या कहने
'जन्मदिन' प्रवम्य पुस्तक की बिग बॉस है।।
//17//

'अनगढ़न सी इबारत' 'रात-दिन' लिखती है
'आत्म-मुग्धा' शालिनी, प्रवाहमय कहती है
गीतों का लालित्य दिखा मुक्त छन्द में
उज्वल कवियत्री अभी से दिखती हैं।।
//18//

सौरभ जी बधाई गुलदस्ते सजाएं है
चुने हुए फूल साहित्य में जो लाए हैं
शीर्षकों को जोडा आत्म कथ्य में मैंने
क्षमा करना मुझे यदि हुई कुछ खताएं है।।
मौलिक एवं अप्रकाशित
पुस्तक का नाम - परों को खोलते हुए
सम्पादक- सौरभ पाण्डेय
प्रकाशन- अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चौराहा मुठ्ठीगंज, इलाहाबाद-211003
पुस्तक का मूल्य- रू0 170.00

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