खुलते परों के सामने का आकाश - गुलाब सिंह
भाषा, शिल्प, कथ्य और प्रस्तुति की विविधता का ध्यान रखते हुये संपादक ने चुनी हुई रचनाओं में संप्रषणीयता को तरजीह दी है. प्रयोग और अद्वितीयता के फेर में कविताओं में की गयी कारीगरी ने जो पाठकीय उदासी पैदा की थी उसे समाप्त करने के लिये संप्रेषण को महत्व देना आवश्यक हो गया है, क्योंकि चुनौती सरल को क्लिष्ट बनाने की नहीं क्लिष्ट को सहज करने की है. सहजता सिद्धि का परिचायक है. कवि अपने समय का पारखी होता है, उसके साथ चलता है और उससे आगे भी झांकने की चेष्टा करता है.
कवि अरुण कुमार निगम आज की सुप्त संवेदना को करुणा भरी आत्मीय अंगुलियों से छुते हुए उकसाते हैं. अपने एक शब्द चितेरे द्वारा- ’बीन बीन कर घूरे और कूडॆ़ -करकट से/ कुछ टुकडे़ रंगों के ढोकर कांधे पर/ उसका बचपन चला सजाने जीवन.’ ऎसे दृश्यों पर उसी कवि की दृष्टि पड़ती है, जिसके हृदय में मानवीय प्रेम का तरल स्पर्श है. ’मन की छुअन’ कविता में वे कहते हैं-- ’भावनाओं की आंधियां अब थम चलीं/ मर्म-सिन्धु में छिपी एक सीप को/ छू लिया तुमने सहज/ बंद पलकें खुल उठीं/........वाह! कितनी शीतल है मन की छुअन.’
इसी तरह परम्परा और लीक से हटकर वैचारिक ताप से दीप्त भाषा प्रेम को केवल शब्द नहीं अर्थ भी देती है जब अरूण श्री कहते हैं-- प्रेम नहीं कहलाता/ कठोरता और लिजलिजेपन के बीच का अन्तराल/ प्रेम वो है--जो दिख रहा है/ अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत.’
आज के बिखरते हुए जीवन में सब से अधिक रिश्ते ही टूटे हैं. रंगीन और बदरंग चेहरों की भीड़ के बीच आत्मीयता की खोज कितनी कठिन हो गई है-- ’अंधेरी सुरंग में अब रिश्तों की डोर के सिरे खोजना/ टूट गये इन्द्रधनुष/ बिखरे शीशों में अब भी चमकते थे भुतेरे चेहरे/ लेकिन कोई अपना नहीं / ’ लेकिन निर्सम्बन्धों के इस अंधेरे से निकल कर प्रकाश की तलाश में बढ़ना ही जीवन है-- ’दिन के उजाले में/ किस सूरज के गुमान में/ कण कण का तिरस्कार कर रहे हो?/ कुछ ही देर में/ होने वाला है अंधेरा.......बढे़ चलो! धाए हुये सवेरा’--कुन्ती मुखर्जी.
आज की सामाजिक विद्रुपताओं के साथ अव्यवस्था का तांडव कितना पीडा़दायक है ! केवल प्रसाद सत्यम की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-- ’पुलिस प्रसाशन कानून सब/ हो जाते हैं पंगु और लाचार/ और तब पूरा कुनबा/ हो जाता मन से बीमार/ यही है-- सत्ता का सार ! ’ सारी अभिव्यक्तियों के बाद भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है. इसी अनकहे को कहने का प्रयत्न करता है कवि.
गीतिका वेदिका के शब्दों में-- ’जो लिख रहा/ क्या यही सत्य है?/ जो दिख रहा/ क्या यही सत्य है? नहीं/ बहुत कुछ और भी है/ अनलिखा, अनदेखा, अनजाना.’ जीवन के तमाम सच समर्थ भाषा का सम्बन्ध पा कर साकार होते है और हमारे सोच-विचार में चमक पैदा करते हैं.
तरूण कवि सज्जन धर्मेन्द्र की रचनायें इसका साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं-- शब्द एक दूसरे से जुड़ कर तलवार बनाते हैं/ विलोम शब्दों का कत्ल करने के लिये....आईने के सामने आईना रखते ही/ वो घबरा कर झूठ बोलने लगता है, एक दूसरे संदर्भ उनकी कहन का ऎसा ही तेवर-- ’सारी नदियाँ/ इस मौसम में/ तुम्हारे काले बालों से निकलती हैं/ फ़िर भी मेरी प्यास नहीं बुझती’
अपनी सीमाओं से बाहर निकलने पर जो निस्सीम अनन्त विस्तार दिखाई पड़ता है उसमें आत्मसात होने की झलक पाने की चेतना एक दार्शनिक पहलू मात्र नहीं है बल्कि सच्चाई से साक्षात्कार का एक अवसर भी है-- ’बोल में शब्द हूँ/ ध्वनि में निश्शब्द हूँ/ चर्चा में प्रश्न हूँ/ संवाद में उत्तर हूँ/ खोजता हर जगह मृग कस्तुरी की तरह/ वो है मेरे अन्दर फ़िर भी अन्जान हूँ/ कैसे पहचानूँ कि मैं कौन हूँ’-- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा. अथवा, काश ! टूट जाये ये दीवार/ और/ हो उन्मुक्त उड़ चलूँ मैं/ भाव पंख पसार/ आकाश के विस्तार में/ क्षितिज नापते/ स्वयं ही विस्तार हो जाने’-- डा. प्राची सिंह.
सब कुछ सहने और कुछ भी न कहने की प्रवृत्ति उस आत्महन्ता मौन तक ले जाती है जो व्यवस्था के कांइयेपन को ताकत देता है. इस निरीहता को छोड़कर आवाज उठाने और खडे़ होने की प्रेरणा भी कविता देती है. प्रतिकार से दूर रहने वाला आम आदमी अपनी सीमाओं में ही घिरा रहता है. बृजेश नीरज के शब्दों में-- ’छत को देखते/ नापता है आकाश/ कमरे की फ़र्श के सहारे/ भांपता है धारती का व्यास/ देखा है उसने ताजमहल/ और अमरीका भी/ तस्वींरो में’
कवयित्री वंदना तिवारी आत्म-परमात्म शक्ति की ओर उन्मुख हो ’सद्भावे, साधुमावे च’ के रूप में कहती हैं- ’जब जिंदगी के किनारों की/ हरियाली सूख गई हो/ पसी मौन हो कर/ अपने नीडॊं में जा छिप हों/ सूरज पर ग्रहण की छाया/ गहराती ही जा रही हो......तब मेरे प्रभु/ मेरे होठों पर हँसी की/ उतनी रेखा बनाये रखना’.
’घाव समय के’ कविता में विजय निकोर ने अमिट घावों की ओर संकेत दिया है-- ’अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे/ अनगिनत घाव जो वास्तव में भरे नहीं/ समय को बहकाते रहे/ पपडी़ के पीछे थे हरे/ आये गये रिसते रहे/’
जय पराजय के वाद भी समर शेष रह जाता है क्योंकि वास्तव में हार और जीत दोनों शाश्वत सत्य नहीं हैं. सत्य तो समर ही है जो कुछ देता भी नहीं. बार बार मिटाता है और मिटने के लिये आमंत्रित करता रहता है. विन्ध्वेश्वरी प्रसाद त्रिपाठी ’विनय’ इसी चिर संघर्ष की पृष्ठभूमि पर कहते हैं-- ’क्या है जीवन का उद्देश्य/ कैवल्य/ मुक्ति/ स्वर्ग/ तो फ़िर जीवन क्यों?’ अर्थात जीवन जो प्रत्यक्ष और सबसे बडा़ सच है उसमें आच्छादित अपनी सत्ता को पहचान लेने की प्रतिश्रुति-- ’मैं खो चुका हूँ खुद को/ निकलना चाहता हूँ उस आप से/ जो कैद है किसी आवरण के भीतर’--
भीतर अपनी आकाक्षाओं की दुनिया है और बाहर है अनन्त ब्रह्माण्ड का विस्तार. भीतर के टिमटिमाते प्रकाश से जब संसार को प्रकाशित करनेवाले सूर्य का परम प्रकाश जुड़ जाता है तो अपनी ही सत्ता महनीय हो जाती है. शरदिन्दु मुखर्जी के शब्दों में - ’समय की धार पर/ अंधेरे का आँचल पकडे़/ मैं बैठा रहा अपनी इच्छाओं का दीप जला कर/ अडिग अचंचल/ प्राची में उगती/ स्वर्णिम छटा के मधुर स्पर्श ने/ मुझको एक नई औकात दिला दी/’ इसी भाव को वह दूसरे संदर्भ में कहते हैं-- ’यह जन्मदिन है/ स्मृतियों का पीला पतझर/ नये वसंत का आश्वासन औ’ कोमल पत्रों का मर्मर/ कौन भेजता मौन निमंत्रण/ किसका यह सस्वर संकेत’
समय तो सब से मूल्यवान वही है जो हमारे साथ है जिसमें हम साँस ले रहे हैं. हमारी भविष्यदृष्टि भी इसी पर निर्भर है. ’गया वक्त फ़िर हाथ आता नहीं’ इसीलिये साथ चलते एक-एक क्षण को पूरी शिद्दत से जी लें, उससे जो पाना है पा लें. शालिनी रस्तोगी की पंक्तियाँ देखिये-- ’अतीत के अंधकार में/ तो कभी/ भविष्य के विचार में/ भरमाते हम/ खो देते हस्तगत/ वर्तमान के/ मोती अनमोल.’
उपर्युक्त विवरण में उद्धरण के रूप में कुछ बानगी ही दी जा सकी है. अधिसंख्य रचनायें उद्धरणशीलता (कोटेबिलिटि) की शक्ति रखती हैं. तमाम भीमकाय समवेत संकलनों की भीड़ में कलेवर में यह छोटा संग्रह अपनी अलग पहचान रखता है. कुछ पुराने अनुभवी कवियों के मध्य ऊर्जावान नये रचनाकार संग्रह में अपने-अपने रंग बिखेरते हैं. इस मूल्यवान संग्रह को संपादित करने के लिये बन्धुवर सौरभ पाण्डेय जी तथा इसे सुरुचिपूर्ण कलेवर में प्रस्तुत करने के लिये अंजुमन प्रकाशन और समर्पित साहित्यकार वीनस केसरी जी बधाई के पात्र हैं.
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--गुलाब सिंह
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समीक्षा - परों को खोलते हुए-1 : एक पाठकीय प्रतिक्रिया -राहुल देव
में हुई है |
पुस्तक - परों को खोलते हुए - 1 / संपादक - सौरभ पाण्डेय / 160 पृष्ठ / मूल्य - 170 / प्रकाशन - अंजुमन प्रकाशन
समीक्षक -
राहुल देव
संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य-सदन, कोतवाली मार्ग,
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''परों को खोलते हुए'' की काव्यात्मक समीक्षा....................आदित्य चतुर्वेदी........समीक्षक
देखिए तीस परों को खोलते हुए
अक्षर-अक्षर को स्वयं से, तोलते
हुए
कह गए ये दर्द सारा, इस जहां का,
ओ0बी0ओ0 आकाश में खुद डोलते हए।।
//2//
पीत पट की लालिमा मुख पृष्ठ की
हो प्रमुख यह द्वार ज्यों नवसृ-िष्ट की
रच दिया लम्बा वितान साहित्य का
सोच मौलिक चिर निरन्तन दृ-िष्ट की।।
//3//
पन्द्रह रत्नों में प्रथम काव्यारत्न हैं अरूण
सप्त रचनाओं का किया जिसने वरण
'सावन' 'मेरूदण्ड' 'जीवन' 'मन की छुवन'
'कूप' के 'रिश्तों' , तरफ बढ़ते चरण।।
'कैसे कहता' 'प्रेम' में 'बची' हुई 'कविता'
अन्तर्मन संवाद की कहती है सरिता
'बीमार पीढ़ी' साथ में 'क्षमा करें'
जो स्वयं से अंजान दिखती अरूण सविता।।
साहित्य 'पथिक' ये मॉरिशस की बाला हैं
'चांद' 'प्रकृति' की ''त्रुटि', तपन की ज्वाला हैं'
'अपने को ढूंढों' अपने अन्तर्मन में
शब्दों-शब्दों की व्यथा, गजब कह डाला है।।
'मैं हूं मौन' मौन है के0पी 'सत्ता सार' के गलियारे से
'बेरोजगार' हो गई भावना, 'दंगा' दूध' किनारे से
वो 'मासूम सा बच्चा' 'अलगाववादी' चक्राे में
धन्य हो गई रचना तेरी, हम तो जिए इशारे से।।
'सुनो तुम' गीतिका 'देर हो रही', मंजिल तुमसे दूर नहीं
'तुम्हारे कंधे' बंधी निराशा, खुद से तुम मजबूर नहीं
सजग लेखनी तुम्हें पुकारे मन का पीर अक्षर बन जाये
'सत्य सार' 'सदियों' से कहती है बात, पर गुरूर नही।।
धन्य हुए धर्मेन्द्र जी, 'सिस्टम' हुआ खराब
'चमकीली रंगीन' का रंगत खुश्बो आब
'लोक तंत्र के मेढक' 'तुम्हारी बारिश' के साये
साधुवाद कविवर बाकी सब है हाय!........।।
'लगता बसंत आ गया' फिर काहे 'दुर्भाग्य'
प्रदीप 'स्पर्श उम्मीदों का' उदित हुआ सौभाग्य
'इन्कलाब' 'जीवन-मृत्यु' स्वयं परचम 'शान्ति' का
उत्तम रचना, श्रेष्ठ विचार बहा दिया बैराग्य।।
प्राची के 'अनसुलझे प्रश्न' 'चंद शब्द' आ गये
'अनछुआ चैतन्य' में छायावाद पा गये
'देह बोध' 'जाने क्यों 'अनगिनत बातें कहीं
छोड़ धरा उसी क्षण, आकाश में हम आ गये।।
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'हांफता-कांपता सा दिख रहा था 'हाथी'
'कुम्हार' की व्यथा को शब्द दे गये साथी
'चिल्लाओ कि जिन्दा हो' जरूरत है बृजेश
'सूरज' 'पत्थर' चांदनी शत-शत नमन है साथी।।
महिमा 'प्रवंचनाएं' 'दोराहे पर लाती हैं
'तुम स्त्री हो' बहुत कुछ कह जाती है
'स्मृतियों' में 'अंतस का कोना' 'तुम्हारा मौन' नही
'सर्द धरती' बुलंदी की मीनार नजर आती है।।
'कांपते उर' 'चिरानन्द' वैचारिक नन्दन है
'अंश हूं तुम्हारा' 'मां' का शत अभिनन्दन है
'जिंदगी की राह' में 'द्वन्द' तो होते हैं
लिखती रहो वन्दना, भविष्य का वन्दन है।।
'बारिश की बूंदे' अतीत की यादें
'घाव समय की' करती फरियादें
'मौन पलने दो' यादें विजय की
'रक्तधार' निजत्व की, पीड़ा की खादें।।
शीतलता में तपन का सोता है
व्यंग्य की धार 'पुरानी हवेली'
लिखती है लेखनी कवि मन रोता है।।
शरदिन्दु की रचना उत्तम और खास है
'आशंका' 'औकात' की 'तस्वीर' क्या कहने
'जन्मदिन' प्रवम्य पुस्तक की बिग बॉस है।।
'अनगढ़न सी इबारत' 'रात-दिन' लिखती है
'आत्म-मुग्धा' शालिनी, प्रवाहमय कहती है
गीतों का लालित्य दिखा मुक्त छन्द में
उज्वल कवियत्री अभी से दिखती हैं।।
सौरभ जी बधाई गुलदस्ते सजाएं है
चुने हुए फूल साहित्य में जो लाए हैं
शीर्षकों को जोडा आत्म कथ्य में मैंने
क्षमा करना मुझे यदि हुई कुछ खताएं है।।
सम्पादक- सौरभ पाण्डेय
प्रकाशन- अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चौराहा मुठ्ठीगंज, इलाहाबाद-211003
पुस्तक का मूल्य- रू0 170.00





