इकड़ियाँ जेबी से :: समीक्षाएँ


समीक्षक  - राजेश कुमारी 
अच्छा लेखन क्या ? जो अर्थ से भरा हो | जो अपनी सम्पूर्णता और जीवन्तता के साथ सीधा दिल में उतर जाए, लेखन के दर्पण में पाठक को अपना चेहरा नजर आने लगे, रचना पाठक से सीधा वार्तालाप करने लगे, लेखन में प्रयुक्त बिम्ब पाठकों को अपने आसपास नजर आने लगें, चेहरे  की भाव-भंगिमाएँ रचना के उतार-चढ़ाव के साथ तारतम्य स्थापित करके बदलती रहें,  दत्तचित्त होकर पाठक तत्काल उस दस्तावेज का भरपूर रसास्वादन कर सकें|
इन सब बातों को दिल से महसूस किया जब मेरे हाथों में एक प्रखर, प्रबुद्ध रचनाकार सम्मानीय सौरभ पाण्डेय जी की काव्य कृति---इकड़ियाँ  जेबी से आई | आदरणीययोगराज जी ने इन इकड़ियों को अशर्फियाँ कहा उसमें कोई संदेह नहीं है | मैं तो इनको मणियाँ कहूँगी जो कवि ने साहित्य सिन्धु में डुबकियाँ लगाकर चुन-चुन कर हमारे सामने पेश की हैं |
भाव भावना शब्द में एक जीवन ऐसा भी रचना में कवि ने आज की चकाचौंध भरी जिंदगी, भागमभाग और मानव कर्म की व्यस्तता के इर्दगिर्द ताना-बाना बुना है जिसको पढ़कर एक चलचित्र सा आँखों के सामने दिखाई देता है और पाठक  खुद को उस स्थान पर पाता है | थका-हारा इंसान जब घर लौटता है तो अपने बच्चों को देखकर सब थकान भूल जाता है
कवि कहता है –---
 देर शाम
मैं लसर
हाशिये पे जो गिरा
शोर औ चीत्कार की धुंध से अलग हुआ
वो एक है जो मौन सी
मन के धुंए के पार से
नम आस की उभार सी
ठिठकन की गोद में पड़ी
बेबसी की मूर्त  रूप
सहम सहम के बोलती
पापा जल्दी ...
ना पापा जरूर आ जाना 
ये पंक्तियाँ हृदय को द्रवित करती हैं| 
शब्द चित्र में गाँव चर्चा का हर एक परिदृश्य जाना-पहचाना लगता है, जैसे मेरे ही गाँव की बात हो रही हो
पांच अंको की आय बेटा झाँखता है
चार अंको की पेंशन बाप रोता है
अब शहर  और गाँव में यही फर्क होता है.
कुल इन तीन पंक्तियों में कवि ने गाँव से युवको का पलायनवाद, वृद्धों के प्रति उपेक्षा जैसे ज्वलंत मुद्दों को बड़ी सुलभता से दर्शा दिया है | अतिश्योक्ति नहीं होगी जो कहूँ गागर में सागर भर दिया है |   
यथार्थ चर्चा में परिचय में कवि क्या कहता है ----
यदि तुम्हारा अभिजात्य
इस परस्पर परिचय को महज एक जरिया समझता है
बेसाख्ता आगे निकल जाने का महज एक सोपान
तो अफ़सोस यार ...
शीशों मढी इस बहुरंगी तस्वीर के साथ तब
कहीं कुछ और भी दरकता है
बहुत गहरे
जिसे नहीं सुनते कोई कान
सुनती हैं तो पनियायी आँखें
और जबाब फिर नहीं देते कुछ शब्द
देती हैं उज्बुजाई आंहें
जिनकी तासीर मजाक नहीं होती कभी
मजाक नहीं होती 
यह रचना कवि की संवेदनशीलता की पर्त खोलती हुई चलती है | कवि का कोमल हृदय स्वीकार नहीं करता पाता कि दोस्ती/परिचय की आड़ में कोई अपना मकसद पूर्ण कर रहा हो ! ये छल एक संवेदनशील हृदय को कदापि मंजूर नहीं हो सकता | यहाँ पाठक को ये खुद के भाव लगने लगते हैं | वो खुद से बातें करता है, यही किसी रचना की विशेषता होती है | 
गीत-नवगीत में हर रचना मनमुग्ध करती है | आपने प्रकृति के बिम्ब चुनचुन कर उनको नवरंग रूप देकर अपने गीतों में ढाला है जो उनके सौन्दर्य को दुगुना करते हैं |
आओ साथी बात करें हम –इस गीत को मैं आ० सौरभ जी के कंठ/मुखारविंद  से सुन भी चुकी हूँ, आज पढ़ कर पुनः आनंदित हूँ |
बारिश की धूप में कवि कहता है ----
राह देखती क्यों उसकी
ये पगली सांकल
रह-रह हिल कर 
चुप-चुप दिखती सी पलकों में
कब से एक पता बसता है  
जाने क्यों हर आने वाला
राह बताता सा लगता है  
इन पंक्तियों को पढ़ कर कौन ऐसा होगा जो मन में उस दृश्य को साकार होते हुए महसूस न करे और खुद को वहां खड़ा न पाए ?

साथ तेरा वो रहना की ये पंक्तिया बरबस आकर्षित करती हैं ----
जो बीता अपना हिस्सा था
क्या मरू
क्या मृग माया  
संदेसे भेजे सदियों ने
पर्व न कोई आया
उम्मीदों में दृग कोरों का नामना
रह रह बहना
ये पंक्तियाँ कवि के हृदय में दबे जज्बात से धीमे-धीमे निकलकर आती हुई प्रतीत होती हैं जो पाठक के हृदय को भी नम कर जाती हैं |
नए साल की धूप की प्रथम चार पंक्तियाँ ही रचना पर रुकने को मजबूर कर देती हैं
आँखों के गमलों में गेंदे आने को हैं
नए साल की धूप तनिक तुम लेते आना
किसी अपने को स्मरण करते हुए हृदय में उठते हुए भावों में क्या जबरदस्त बिम्ब प्रयोग किया गया है ! यह देखते ही बनता है |
कवि की छांदस इकड़ियाँ भी अद्भुत और बहुमूल्य हैं ,दोहे ,उल्लाला छंद ,सवैये ,कुण्डलियाँ हरिगीतिका छंद ,घनाक्षरी ,
दुर्मिल सवैये की मन मुग्ध करती फुलकी जिसको पढ़कर मुख में पानी भर आएगा
देखिये क्या कहते हैं कवि---
चुपचाप से चाट रहे चुडुआ चख लोल बने घुरियावत है
हुनके मिलिगा तिसरी फुलकी ,हिन् एक लिए मुँह बावत है------वाह्ह्ह  
पढ़कर लगा है कि चाटवाले के पास हम भी खड़े हैं, तीसरी फुलकी का इन्तजार कर रहे हैं |
कवि के एक दोहे के साथ मैं अपनी बाते समाप्त करुँगी
वज्र गिरे गंगा चढ़े, या नभ उगले आग |
जिम्मेदारी कह रही, जीवन से मत भाग ||
अनुपम दोहावली का बहुत-बहुत शिक्षाप्रद दोहा है यह |
आ० सौरभ जी की इस उत्कृष्ट कृति की समीक्षा यहीं समाप्त नहीं हो जाती | यह एक अथाह सागर है जितनी डुबकियाँ लगायेंगे अलग ही अनुभूति होगी और कहने के लिए बहुत कुछ होगा | बहरहाल आ० सौरभ जी को इस काव्य संग्रह की ढेरों बधाई और उनकी आगामी कृतियों की अपेक्षा/मनोकामना रखते हुए शुभकामनायें देती हूँ |
राजेश कुमारी  

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'इकड़ियाँ जेबी से' - एक पाठकीय समीक्षा - डॉ प्राची सिंह 




अंजुमन प्रकाशन,  इलाहबाद की साहित्य सुलभ संस्करण योजना की आठों पुस्तकों को अपने हाथों में पाना विशेष रूप से एक समृद्ध कर देने वाला शब्दातीत अनुभव रहा चूँकि ये पुस्तकें एक विशेष योजना के अंतर्गत प्रस्तुत हुई हैं तो ये बेहद स्वाभाविक है कि पाठक की दृष्टि से इनमें साहित्यिक तत्वों की तलाश की जाय । इन पुस्तकों में से एक है, सौरभ पाण्डेय जी की इकड़ियाँ जेबी से । इस पुस्तक के प्रति जिज्ञासा भी बनी थी । कारण कि, सौरभजी के लेखन-चिंतन-दर्शन की उत्कृष्टता और गहनता से पूर्व-परिचित होना मेरे लिए अक्सर विस्तार के अवसर उपलब्ध कराता है । दूसरा कारण है, इस काव्य-संग्रह के शीर्षक इकड़ियाँ जेबी से का भोलापन, जो अपने आप में ज़मीन से जुड़े निश्छल निर्मल रचनाकर्म की गवाही देता, अपने पन्नों से गुजरने को बरबस आकृष्ट करता है ।

अतः सर्वप्रथम ये स्पष्ट कर देना यहाँ ज़रूरी है, कि आखिर इस काव्य-संग्रह में वो तत्व कौन से हैं, जिन्होंने मुझे संतुष्ट किया.

1. भाव-भूमि, परिदृश्य, शब्द-शैली, कथ्य-सांद्रता, संप्रेषणीयता के स्तर पर रचनाओं का पाठक से सीधा सम्बन्ध बनाना । कविता के तत्वों रस, बिम्ब, लय, प्रवाह, अलंकारिकता, शब्द-संयोजन, मात्रिकता, विधा-सम्मत प्रारूप में मौजूद होना ।

2. मेरा पाठक बार-बार विस्मित होता रहा कि शब्द सुन्दर हैं या उनमें सन्निहित पारिस्थिक अर्थ । शब्दों के चयन व अर्थ की उत्कृष्टता में निहित सौन्दर्यबोध तथा उनमें अंतर्निहित शिवत्वबोध के मध्य होड़ सी महसूस हुई । यहाँ मैं शिवत्व बोध पर विशेष आग्रह करूँगी, क्योंकि इसी विन्दु पर यह पुस्तक अपनी वैचारिक उत्कृष्टता के प्रतिमान भी गढ़ती है

3. रचनाओं का सामाजिक, नैतिक दायित्व निर्वहन की भावना से व्याप्त सत्य को न केवल प्रस्तुत करना बल्कि उनके कारणों व निवारणों को भी साथ लेते हुए पाठकों को समृद्ध करने क्षमता रखना ।

4. रचनाओं के कथ्य का सामान्य पाठक की मनोदशा, अनुभवों, दर्शन से हामी लेने में सक्षम होना । या इससे भी आगे, कथ्य में चिंतन दर्शन के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बिंदुओं का सन्निहित होना जो पाठकों की चेतना में विस्तार की सामर्थ्य रखते हैं ।

5. रचनाओं में अन्तर्निहित चेतना का पाठक की अनुभूतियों के संचित कोष को इस तरह स्पंदित करना कि रचनाओं से गुज़रना विशिष्ट भावदशा को संतृप्ति तक जीने का अनुभव बन जाए ।

6. रचनाएँ पाठक को सोच के, कल्पनाओं के, अनुभूतियों के एक गहन सागर में ले जायें, जहाँ कुछ पल ठहर पाठक का मन विश्रांति पाए और वहाँ से वापिस लौट आने पर कुछ अनमोल प्राप्त हो जाने के भाव को महसूस करे ।

इकड़ियाँ जेबी से रचनाकार का प्रथम काव्य संग्रह है, जिसमें रचनाओं को पाँच काव्य-खण्डों में संजोया गया है । प्रथम तीन खण्ड अतुकांत सम्प्रेषण-शैली के है; चौथा खण्ड गीत-नवगीत का है तथा पाँचवें खण्ड में रचनाकार की छंदबद्ध कृतियाँ हैं । सौरभ जी का लेखन जिन बहुकोणीय तथ्यों पर आधारित होता है उसका आकलन आवश्यक मापदंडों के आधार पर करना प्राथमिकता होगी । इस परिप्रेक्ष्य में यह अवश्य है कि प्रस्तुत काव्य-संग्रह रचनाकार की मुखरित अन्त:वाणी है.

काव्य-संग्रह के प्रथम खण्ड भाव-भावना-शब्द में अंतर्भावों का सागर समेटे रचनाकार की नौ रचनाएँ संकलित हैं, जो पाठक के अंतर्मन को झकझोरती, संवेदित करती और आर्द्र करती अपनी हर शब्द-बूँद में देर तक डुबोए रखती हैं. भाव-सांद्रता और इंगितों के माध्यम से गहन मानवीय अनुभूतियों को साझा किया जाना इस खण्ड की विशेषता है

किसने कहा मुट्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के एहसास को
इतनी शिद्दत से भला और कौन जीता है !                              
(‘सूरज से’ से)

इन पंक्तियों में आकृति पाता शब्द-चित्र लगातार कुछ खोते जाने की छटपटाहट को एक अनुभव की तरह महसूस करा सकने में सक्षम है ।  काव्य की खूबसूरती यकीनन उसके शब्दों में निहित होती है । लेकिन कई बार रचनाओं को एक ऐसे अनकहे छोर पर छोड़ देना रचनाओं को एक अलग ही ऊँचाई प्रदान करता है, जहाँ पाठक अनुभूतियों की खूबसूरत परिधि में रह कर भी वैचारिक रूप से स्वतंत्र हो । यह रचनात्मकता यकीनन लेखन में मनन और वैचारिक परिपक्वता के बाद ही आती है ।

उनकी अल्हड़ मासूमियत पर जाने क्यों
मेरी आँखों की समझदार कोर तक
नासमझ बनी
नम-नम हुई जाती है
कि, काश.. काश..
काश..                                  
(‘स्मृतियों के दरीचे से’ से )

कुछ शब्द-चित्र एकदम से आश्चर्यचकित करते हैं, जैसे -

वो एक है
जो मौन सी
मन के धुएँ के पार से
नम आस की उभार सी
ठिठकन की गोद में पड़ी                          
(‘एक जीवन ऐसा भी’ से )

यहाँ ठिठकन शब्द एक परिवार की आतंरिक भाव बुनावट को सशक्तता के साथ सजीव कर उठता है । या, एक कर्मरती कठोर पिता जीवन के कोलाहल से बिलकुल विपरीत अचानक नन्ही बच्ची की अप्रत्याशित आर्त पर विह्वल दीख जाता है ।

बेबसी की मूर्त रूप सहम सहम के बोलती
पापा जल्दी...
ना, पापा ज़रूर जाना....”                 
(‘एक जीवन ऐसा भी’ से )

शीर्षक कविता इकड़ियाँ जेबी से वाकई घंटों तक निःशब्द कर देती है इस सोच से, कि “बालमन कैसे नहीं भाँप पाया आगामी-अतीत?” आगामी-अतीत के इन दो शब्दों के चमत्कृत प्रयोग ने जैसे ज़िंदगी के एक बहुत लम्बे सफ़र को अपने में समेट लिया है और पाठक स्वयं को अपने बचपन की भूली-बिसरी किसी गली में खुद को देर तक तलाशता दीखता है ।

पनियायी आँखें बोई हुई माज़ी टूंगती रहती हैं अब..
देर तक !
पर इस लिजलिजे चेहरे से एक अदद सवाल नहीं करतीं
कि, इस अफसोसनाक होने का आगामी अतीत
वो नन्हा सब कुछ निहारता, परखता, बूझता हुआ भी
महसूस कैसे नहीं कर पाया था !”   
(’इकड़ियाँ जेबी से से)

इसी क्रम में ना, तुम कभी नहीं समझोगे कविता में संगिनी की क्लिष्ट मनोदशा को, उसके त्याग व समर्पण को, प्रेम व विरह को, प्रियतम द्वारा न समझे जाने पर व्याप गये एकाकीपन को बहुत ही मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति मिली है । नारी की अंतर्वेदना की ऐसी गहन अभिव्यक्ति रचनाकार की मानवीय संवेदनशीलता के प्रति आश्वस्त करती है । अनुभूति : एक भूमिका में रचनाकार साक्षी भाव से प्रेयसी से विछोह की विवशता और स्तब्धता को स्वीकार करता दिखता है । साथ ही पाठक भी अपने आप को इस वेदना से जुड़ा अनुभव करने लगता है और भाव-सघनता में ठहर जाता है ।

ख़याल ही नहीं आता मन में
कि उसके होनेपन की अनुभूत संज्ञा का
एक घटना मात्र बन कर
स्मृतियों के बियावान कोने में सिमट जाना भी
कभी एक चीखती हुई सच्चाई होगी                         
(‘अनुभूति : एक भूमिका’ से)

अनुभूति, एक भूमिका से आगे में शक्ति की भौतिक रूप से अभिव्यक्त हुई विभिन्न संज्ञाओं को जिस गहन अनुभूति, संवेदनशीलता, कृतज्ञता से शब्द मिले हैं, वे बहुत प्रभावित करते हैं । जहाँ मातृ रूप में वात्सल्य बरसाती शक्ति है, तो वहीं भगिनी बन बलैया लेती दुआएँ मांगती शक्ति का प्रारूप भी है । जहाँ तनया रूप में शक्ति का निर्दोष विस्तार प्रतीत होता है, तो वहीं भार्या बन रोम-रोम में बसती हुई, पारस्परिक अस्तित्व को अर्थ प्रदान करती शक्ति का रूप भी व्याख्यायित होता है । शक्ति के प्रत्येक प्रारूप के साथ रचनाकार का अपने अन्तर्निहित व्यक्तित्व का अर्थ तलाशते हुए जीते जाना बतौर पाठक उक्त अनुभूतियों को वास्तव में जी लेने जैसा ही प्रतीत होता है । इसी खण्ड की अंतिम रचना रिश्ते शर्तों पर निभते मानवीय संबंधों की बेरहम, अंतरमन को छलनी करती पीड़ा की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है।

काव्य-संग्रह का द्वितीय खण्ड ‘शब्द चित्र’ है, जिसमें रचनाकार नें पाँच शीर्षकों के अंतर्गत शब्द-चित्र प्रस्तुत किये हैं । सभी शब्द-चित्र कथ्य-सांद्रता का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ।

अधमुँदी आँखों की विचल कोर को नम होने देना
उसका प्रवाह भले दिखे
वज़ूद बहा ले जाता है                              
(‘शक्ति : छः शब्द रूप से)

नारी की अंतर्निहित संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में शांत दिखती शक्ति की प्रचंडता को और कैसी अभिव्यक्ति चाहिए ? हमारे तथाकथित सभ्य समाज में व्याप्त विसंगतियों से उपजी छटपटाहट कवि के हृदय को कचोटती हुई जीवन के कुछ धूसर रंग में अभिव्यक्त हुई हैं -

मांग खुरच-खुरच भरा हुआ सिन्दूर
ललाट पर छर्रे से टांकी हुई
येब्बड़ी ताज़ा बिंदी
खंजरों की नोंक से पूरी हथेली खींची गयी
मेंहँदी की कलात्मक लकीरें !
फागुन..
अब और कितना रंगीन हुआ चाहता है                    
(‘जीवन के कुछ धूसर रंग से)

क्या हैवानियत के रंग इससे भी ज्यादा धूसर हो सकते हैं ? प्रतीकों को गहन भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बना कर बड़ी-बड़ी बातें चंद शब्दों में कह देना अनुभव से ही संभव है ।

अभागन के हिस्से का अँधेरा कोना
चाँद रातों का टीसता परिणाम है                             
(‘चाँद : पाँच आयाम से)

काव्य-संग्रह के तीसरे खण्ड ‘यथार्थ चर्चा में रचनाकार ने छः रचनाओं को स्थान दिया है । इस खण्ड की अभिव्यक्तियाँ समाज में व्याप्त कठोर सच्चाइयों को एक आईने की तरह प्रस्तुत करती हैं । यह रचनाकार के सजग व सार्थक रचनाकर्म की बानगी है । अक्सर सौरभ जी को कहते सुना है कि एक रचनाकार समाज के श्राप को जीता हैयथार्थ चर्चा खण्ड में प्रस्तुत रचनाओं से गुज़र कर उक्त कथ्य के भावार्थ और तात्पर्य को पहचाना जा सकता है ।

सिलवटें कहीं हों...
काग़ज़ पर..
या फिर....ओह, कहीं भी
निःशब्द रातों की मौन चीख का
विस्तार भर हुआ करती हैं                                      
(‘चीख सिलवटों की से)

किसी ज़रीये के शफ्फाकपन हेतु इस्तेमाल होकर दाग लग जाने के कलंक को, वेदना को बहुत संवेदनशीलता से यह रचना मुखरित करती है, और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है । इसी तरह ‘परिचय’ का गाम्भीर्य चकित तो करता ही है, बाँध भी लेता है ! परिचयात्मकता के नाम पर इस्तेमाल किये जाने का दंश, तमाम चाल पाठक महसूसता है ।

इकड़ियाँ जेबी से काव्य-संग्रह का चौथे खण्ड में सोलह गीतों-नवगीतों को स्थान मिला है । गीतों की लयात्मकता जहाँ अपने साथ बहाये लिए जाती है, वहीं अभिनव बिम्बों की रोचकता चिंतन को झंकृत भी करती है, तो अनुभूतियों को स्पंदित भी करती है ।   यहाँ प्रेम का स्पर्श, आंतरिक शक्ति, संबंधों में उथलापन, संवेदनाओं में सतहीपन को मुखर स्थान मिला है ।

गुच्ची-गढ्ढे
उथले रिश्ते
आपसदारी कीच-कीचड़
पेड़-पेड़ पर दीमक-बस्ती
घाव हृदय के बेतुक बीहड़                       
(‘बारिश की धूप से)

उन्नत दर्शनयुक्त सांस्कृतिक सामाजिक इतिहास के बावज़ूद सुप्त पड़े मानस को झकझोरने के लिए कवि ओजस्वी आह्वाहन करता है.

शिथिल मानस पे वार कर, जो कर सके तो कर अभी
प्रहार बार-बार कर, जो कर सके तो कर अभी...!                       .
(‘जो कर सके तो कर अभी से)

सरल भाषा, सहज शैली, माधुर्य और संवेदनाओं को सूक्ष्मता से प्रस्तुत किये जाने के कारण कुछ नवगीत विशेष ज़िक्र चाहते हैं ।

आँखों को तुम
और मुखर कर नम कर देना
इसी बहाने होंठ हिलें तो
सब कह जाना
नये साल की धूप तनिक तुम लेते आना
(‘नए साल की धूप से)

काव्य-संग्रह का अंतिम खण्ड ‘छन्द प्रभा भारतीय सनातनी छंदों का एक विलक्षण समुच्चय है जिसमें चिंतन, दर्शन, अनुभूति, अध्यात्म, साधना के गहन सागर में उतर चुन-चुन के हीरे-पन्ने-मोती रचनाकार नें तराश-तराश कर पिरोये हैं । दोहा, कुण्डलिया, उल्लाला, दुर्मिल सवैया, मत्तगयन्द सवैया, भुजंगप्रयात, घनाक्षरी, आल्हा, हरिगीतिका, अमृतध्वनि आदि छंदों पर उत्कृष्ट रचनाएं न केवल शिल्प पर कसी हुई है बल्कि आतंरिक शब्द संयोजन और कलों के निर्वहन के साथ प्रवाह की उत्कृष्टता पर भी खरी उतरती हैं । सतत रचनाकर्म यहीं रचना-धर्म में परिणित हो जाता है जब सनातनी विरासत को संजोते हुए रचनाकार उच्चतम कथ्य व सत्य भाव का सम्प्रेषण परम्परागत छंदों में आधुनिकता परिदृश्य के साथ करता है।

आँखें : उम्मीदें तरल, आँखें : कठिन यथार्थ
आँखें : संबल कृष्ण सी, आँखें : मन से पार्थ।।

एक श्रेष्ठ सचेत सांसारिक व्यक्ति द्वारा संतुलित व्यवहार ही अपेक्षित होता है, किसी भी सकारात्मक चर्चा को जो मनबुद्धि दोनों के परिवर्धन का कारण हो सकती है । व्यावहारिक शिष्टाचार व सदभावनाओं से ही मनुष्य श्रेष्ठ होता है. ऐसे सद्भावों और उत्कृष्ट कथ्ययुक्त यह प्रस्तुति सिर्फ पाठन नहीं अपितु मनन चिंतन व आचरण में ढालने के लिए आवश्यक वैचारिक तत्व उपलब्ध करा रही है । भुजंगप्रयात छंद में रचित मैं कुम्हार रचनाधर्मिता का एक सुन्दर उदाहरण है । सार्थक शब्द-विन्यास, अंतर्गेयता, अंतर्मन को स्पर्श करती एक कुम्हार की आत्मगाथा, उसकी ज़िंदगी की कटु सच्चाई को प्रस्तुत करती है ।

कलाकार क्या हूँ.. पिता हूँ अड़ा हूँ
घुमाता हुआ चाक देखो भिड़ा हूँ
कहाँ की कला ये जिसे खूब बोलूँ
तुला में फतांसी नहीं पेट तोलूँ                                 
(‘मैं कुम्हार से )

काव्य-संग्रह की रचनाओं में पाठक की चेतना में अपेक्षित विस्तार कर सकने का सामर्थ्य है । रचनाएँ ठहर कर पढ़ी जायँ तो वे पाठक को उसी के चिदाकाश में ले जाती हैं, जहाँ नैसर्गिक मौन उसकी चेतना को ऊर्जस्विता से सराबोर कर देता है ।


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 इकड़ियाँ जेबी से "पर मेरे विचार - अन्नपूर्णा बाजपेई


इकड़ियाँ  जेबी से
‘ये इयकड़ियाँ नहीं अनमोल अशरफियाँ है’ आ0 योगराज सर की ये पंक्ति इस रचना संकलन के लिए एकदम उपयुक्त बैठती है । आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी का शब्द संसार बहुत विस्तृत है । उन्होने अपने मनोभावों को बड़ी ही सुंदरता से एक एक नगीना सा जड़ा है । उनकी प्रयोग धर्मिता हर रचना मे परिलक्षित होती है लीक से हट कर एक दोहा उनकी ही रचना का अंश है देखिये –
संयम त्यागा स्वार्थवश , अब दीखे लाचार ।
 उग्र हुई चेतावनी , बूझ नियति व्यवहार ॥
इस संकलन मे किसी विशेष विधा को नहीं चुना गया है अपितु चलतू सभी विधा की रचनाओं का समावेश किया है । इसमे तुकांत , अतुकांत , गीत , नव गीत एवं विभिन्न छंदों को चुनकर संकलित कर सच मे आदरणीय सौरभ जी ने अपनी जेबी से इकड़ियाँ निकाली है । ये अमूल्य इकड़ियाँ जो हम सबके लिए किन्ही अशर्फियों से कम नहीं है इसमे शामिल सभी रचनाएं विषय तथा विधागत वैविध्यता को पूर्णतया दर्शाने मे कामयाब है ।
उनकी रचना “एक जीवन ऐसा भी” मे शब्द संयोजन देखिये –
  वेग – वेग – वेग मे
  द्रुत वेग के प्रवेग मे
कभी कहाँ ये सोचता
कि ज़िंदगी क्या है भला ..........
रचना मे हर शब्द का प्रवाह बहुत ही सुंदर है पाठक भावों के साथ बहता ही चला जाता है
“ जिजीविषा” नमक रचना को देखिये :-
कि मुँदी
उठी ,
झपकी ,
ठिठकी
रुक ठहर परख तकती
झट छूट छलक भागा झटके मे
शब्द प्रवाह बहुत ही सुंदर है :-
ना , तुम कभी नहीं समझोगे
निस्सीम तुम विस्तार से ............
पुस्तक के अंतिम भाग मे लगभग सभी छंदों को संकलित कर प्रस्तुत किया है इसमे दोहा छंद , उल्लाला छंद , आल्हा छंद , मत्त गयंद सवैया , कुण्डलिया , हरिगीतिका , दुरमिल सवैया , भुजंग प्रयात , घनाक्षरी , अमृत ध्वनि छंदों का समावेश है ।
वीर छंद का सुंदर उदाहरण देखिये :-
“ तभी लपक कर सहसा कूदा ,
  भौचक करता एक जवान
  आधे लीवर की काया ले
  औचक आया सीना तान “...
अङ्ग्रेज़ी से लीवर लेकर उन्होने रचना को जीवंत कर दिया और रचना मुखर हो उठी । उन्होने रचनाओं मे कहीं कहीं कुछ क्लिष्ट शब्दों का भी प्रयोग किया है किन्तु वे मनस को लुभाते है ।
अमृत ध्वनि छंद मे “जल के शोषक” रचना अत्यंत प्रभाव शाली है भाव देखिये :-
शुष्क होंठ मरु रुष्क मन , देह चुप कंठ
जल विहीन भूतल मगर बेच रहे जल कंठ
घनाक्षरी छंद के भाव अद्वितीय है देखिये :-
अर्थ मिलें तय तय , भाव खिलें जय जय
रचना बगैर पय , यही व्यवहार दे
आदरणीय सौरभ जी का संकलन उनके उचित प्रबंधन को दर्शाता है , थोड़े मे बहुत कहना उनकी आदत मे शुमार है । पाठक के दिल मे सीधे उतरती हुई रचनाएँ कहीं न कहीं यथार्थता का बोध कराती हैं ।
मै उनकी रचनाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी करने के लिए अभी बहुत छोटी हूँ , मेरा कर्म शायद सूरज को दीपक दिखाने जैसा होगा । किन्तु मैंने अपने मनोभावों को आप सबके समक्ष साझा किया है । मुझे आशा है आप सभी सहमत होंगे । इस आशा के साथ कि वे साहित्य के नभ पर सूर्य सम चमके और अपनी रश्मियो से हम सबको आलोकित करते रहें ।
             ............ अन्नपूर्णा बाजपेई

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'इकडियाँ जेबी से' - लोकधर्मी सुवास का शब्दांकन --जगदीश पंकज




'इकडियाँ जेबी से' सौरभ पाण्डेय का प्रथम काव्य-संग्रह है । शीर्षक पहली नज़र में चौंकाता है जो संग्रह की इसी नाम से एक कविता भी है । हिंदी भाषी क्षेत्र में आमतौर पर यह शब्द प्रयोग नहीं होता । संग्रह के पृष्ठ पलटने पर पता चलता है कि सौरभजी ने इसी प्रकार के बहुत से शब्दों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है जो अपनी आंचलिकता की छाप छोड़ते हुए यत्र-तत्र उपस्थित हैं । कवि ने हिंदी क्षेत्र की विविधता को ध्यान में रखकर आंचलिक शब्दों के अर्थ भी पाद-टिप्पणी के रूपमें दिए हैं जिससे रचनाके मूल को समझने में सुविधा होती है । 'इकडियाँ' छोटी-छोटी कंकड़ियाँ हैं जिन्हें बच्चे इकठ्ठा कर खेलते हैं और जिन्हें प्राप्त कर प्रसन्न होते हैं । और, अपनी छोटी सी 'जेबी' अर्थात जेब में रख कर आनंदित होते हैं । अपनी छोटी-छोटी नगण्य-सी उपलब्धियां यदि यत्न से सम्भाली जायें तो बच्चे ही नहीं बड़े मनुष्य को भी आल्हादित करती रहती हैं । इसी तरह की इकडियों जैसी रचनाओं से संग्रह को सजाया है सौरभ पाण्डेय ने । संग्रह की मुख्य भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार एहतराम इस्लाम द्वारा लिखी गयी है जिसे आगे बढ़ाया है ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम के प्रधान सम्पादक योगराज प्रभाकरने और स्वयं कवि ने अपने आत्म-कथ्य के द्वारा ।

प्रत्येक रचनाकार के अपनी प्रथम कृति को प्रस्तुत करते हुए कुछ मनोवैज्ञानिक व भावुक दृष्टिकोण भी होते हैं जिससे बहुत-सी आशा-आकांक्षाएं जुडी होती हैं । निःसंदेह सौरभ पाण्डेय भी इससे अलग नहीं हैं तथा आत्म-कथ्य में कहा भी है, "मेरी प्रस्तुतियां मूल रूप से मेरे अंदर के बच्चे के द्वारा मेरे मन-व्योम के पाठकों और उनके समाज से हुए संवाद हैं । संवाद उनसे जिनके होने से यह बच्चा सहज महसूस करता है । संयोगवश, भौतिक रूप से परिचित लोग भी आत्मीयता के उन्नत पलों में मेरे अंदर के इस बच्चे की प्रासंगिकता को प्रति स्थापित करते दीखे हैं ।"

'इकडियाँ जेबी से' संग्रह की रचनाओं को कवि ने कथ्य और शिल्प के विभाजन के अनुसार पांच खण्डों में प्रस्तुत किया है, जिन्हें 'भाव-भावना-शब्द', 'शब्द-चित्र', 'यथार्थ चर्चा', 'गीत-नवगीत' तथा 'छंदप्रभा' नाम से शीर्षक दिए हैं। 'भाव-भावना-शब्द' खंड में छंदमुक्त कविताओं के द्वारा अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया गया है। इन कविताओं में छान्दसिक गेयता न हो कर भी एकलयात्मकता है जो समकालीन कविता के शब्दाडम्बर से इन्हें अलग करती है। 'एक जीवन ऐसा भी' कविता की पंक्तियाँ हैं :

'तुम मुग्ध थे
विभोर थे
तुम 'भक्क' थे, कठोर थे
कि, उस अजीब दौर में
बेहिसाब शोर थे
हरेक आँख़ में चमक, हरेक बात में खनक
माहौल ये अजीब सा
बेबाक थे, भौचक्क थे
आँख-आँख थी फटी
बस कौतुहल था बह रहा
तो, तालियाँ पे तालियाँ पे तालियाँ बजती रहीं । ....

'इकडियाँ जेबी से' कविता निश्चय ही एक उत्कृष्ट रचना है जिसमें कवि एक फंतासीनुमा प्रयोग करते हुए अपनी वर्त्तमान स्थिति से अतीत का पुनरावलोकन करता हुआ फिर वर्त्तमान पर लौटता है । जिसमें 'स्मृति की चींटियाँ' बचपन की छोटी-छोटी खुशियों में सुख प्राप्त करती हैं और जेब में इकट्ठी की गयी इकडियों को निकाल कर आनंदित होती हैं । इस कविता में कविमन में जो स्वाभाविक आंचलिक शब्द प्रयुक्त किये हैं जिनके स्थानापन्न तो हो सकते हैं किन्तु उतनी अर्थवत्ता नहीं दे सकते जो स्वतः और अनायास उभरती है । पाद टिप्पणी में इन देशज आंचलिक शब्दों के अर्थ देकर रचना को समझने में आसानी हो सकी है । इसी खंड में 'अनुभूति : एक भूमिका' तथा 'अनुभूति : एक भूमिका के आगे’ शीर्षक की कवितायें लम्बी होने के बावजूद कवि के रचनाकर्म की उत्कृष्टता प्रकट कर रही हैं ।

'शब्द-चित्र' खंड के अंतर्गत पांच कवितायेँ हैं जिनमें विभिन्न स्थितियों के बिम्बों का सफल शब्दांकन कवि के अध्ययन और गहनता का परिचय है । 'गाँव चर्चा' के एक परिदृश्य में :

"गट्ठर उठाती इकहरी औरत
अनुचर दो-तीन बच्चे
गेहूं के अधउगे गंजे खेत
जूझता हरवाहा
टिमटिमाती साँझ
बिफरा बबूल
बलुआहा पाट
या फिर.. कोई फूसहा ओसारा
सबकुछ कितना अच्छा लगता है
काग़ज़ पर"

'जीवन के कुछ धूसर रंग' कविता में एक दृश्य :

"बजबजाई गटर से लगी नीम अँधेरी खोली में
भन्नायी सुबह
चीखती दोपहर
और दबिश पड़ती स्याह रातों से पिराती देह को
रोटी नहीं
उसे जीमना भारी पड़ता है."

'मद्यपान : कुछ भाव' कविता में एक चित्र -
आदमी के भीतर
हिंस्र ही नहीं
अत्यंत शातिर पशु होता है
ओट चाहे जो हो
छिपने की फितरत जीता है.... तभी तो पीता है

'यथार्थ चर्चा' खंड के अंतर्गत छः कवितायेँ हैं जिनमें कविने अपनी समकालीनता को व्यक्त किया है । अपनी प्रतिक्रिया में, 'चीख सिलवटों की', 'मुखौटे', 'परिचय', पाखण्ड', ’मतिमूढ़' और 'हम ठगे जाते रहे हैं' कविताओं के माध्यम से समयगत यथार्थ और मोहभंग को रेखांकित किया गया है । कवि की अपनी सीमायें हो सकती हैं जब वह किसी स्थिति की ओर इंगित तो कर देता है किन्तु उसके समाधान के बारे में चुप रहता है । इस खंड की कविताओं में कवि के समाधान व्यक्त नहीं हैं जो विचार के स्तर पर अधूरापन है जिससे थोडा प्रयासकर के बचा जा सकता था और कवि की परिपक्व दृष्टि को और पुष्ट कर सकता था ।

'हम ठगे जाते रहे हैं' कविता में निकट अतीत में ठगाए जाने के अनुभवों की प्रतिक्रियावादी दृष्टि है :

'हम लुटे हैं
हम ठगे हैं
और ये होता रहा है पुरातन-काल से' …

या

'हम ठगाते रहे हैं
उस समय भी जब
तथा कथित दूसरी आज़ादी का उद्भट-उन्माद था'…

…… 'हम फिर ठगे गये
जब एक सामंत बहुरूप ले फ़क़ीर बना था'  .......

और फिर अंत तक आते-आते -

'एक बार फिर
भोली चिकनी सूरतों पर
माटी की ज़िन्दा मूरतों पर
बलि-बलि जा रहे हैं.…
इन सूरतों के कई पालित-पोषुओं ने
ठगी को विद्या का दर्जा दे रखा है
हमने न चेतने की कसम-सी खा रखी है
हम ठगी-दंश के पुरातन अपाहिज हैं
हमें न बताना, उठाना न जगाना
हम निश्चिन्त हैं
दिवा-स्वप्नों में खोये-से
लापरवाह सोये-से ……'

'गीत-नवगीत' खंड में कवि के सोलह गीत और नवगीत हैं । गीतों में सौरभ पाण्डेय ने शिल्पगत प्रयोग करते हुए कथ्य की सम्प्रेषणीयता का ध्यान रखने की पूरी कोशिश की है । पूरे संग्रह की रचनाओं का आकलन करें तो 'गीत-नवगीत' खंड ही कवि की शैलीगत पकड़, वैचारिक परिपक्वता, शब्द सौन्दर्य और बिम्बात्मक अभिव्यक्ति का सफल संयोजन है । गीतों में जहाँ आंचलिकता है वहीँ गहन अनुभूतियों का चित्रण भी । साधारण बोलचाल के आंचलिक शब्दभाव-अनुभाव को ऐसे प्रकट करते हैं कि उनका स्थानापन्न शब्द स्वाभाविक प्रभाव नहीं बना सकता । अनेक उदाहरण हैं इस खंड में जिन्हें उद्धृत किया जा सकता है ।
जैसे कि :
'थिर निश्छल, निरुपाय शिथिल सी
बिना कर्मचारी की मिल-सी' ……   (चाहना गीत की पंक्तियाँ)

'शोर भरी
ख्वाहिश की बस्ती की चीखों से
क्या घबराना
कहाँ बदलती दुनिया कोई
उठना, गिरना फिर जुट जाना'……… (आओ साथी बात करें हम)

चुप-चुप दिखती-सी
पलकों में
कब से एक
पता बसता है
जाने क्यों
हर आने वाला
राह बताता-सा लगता है.…… (बारिश की धूप)

एक व्यंजना 'अपना खेल अजूबा' गीत की पंक्तियाँ ---

'झूम-झूम कर
खूब बजाया
उन्नति की बज रही पिपिहिरी
पीट नगाड़ा
मचा ढिंढोरा
लेकिन उन्नति रही टिटिहिरी ' .......

'मैं उजाले भरूँ' गीत में एक चित्र -

'क्या हुआ
शाम से आज बिजली नहीं
दोपहर से लगे टैप बिसुखा इधर
सूख बरतन रहे हैं न मांजे हुए
जान खाती दिवाली अलग से, मगर--'

'परम्परा और परिवार' रचना में सामान्य जन की दैनिक असहाय स्थिति का आंचलिकता से सना बिम्ब --
'लटके पर्दे से लाचारी
आँगन-चूल्हा
दोनों भारी
कठवत सूखा बिन पानी के
पर उम्मीदें
लेती परथन !
कैसे रिश्ते, कैसे बन्धन  ....

अन्य अनेक उदाहरण हैं जो कवि की गीतात्मक परिपक्वता को प्रदर्शित करते हैं।

'छंदप्रभा' संग्रह का अंतिम खंड है जिसमें कवि की छान्दसिक प्रतिभा को दर्शाता है। पारम्परिक छंदों में दोहे, उल्लाला छंद, मत्तगयन्द सवैया छंद, कुण्डलिया, हरिगीतिका, घनाक्षरी, भुजंगप्रयात आदि छंदों का प्रयोग किया गया है । जहाँ छंदों की शैली में विषय को सफलता से व्यक्त किया गया है वहीँ कुछ स्थानों पर छंद का सायास प्रयोग किया हुआ है । जिससे बचा जा सकता था ।
'इकड़ियाँ जेबी से' संग्रह यद्यपि सौरभ पाण्डेय का प्रथम प्रयास है, किन्तु लोकधर्मी सुवास का सफल शब्दांकन है जो तरह-तरह की सुन्दर इकड़ियाँ एक साथ प्रस्तुत कर भविष्य की ओर आशान्वित करता है । अपनी समग्रता में संग्रह आकर्षक तथा पठनीय है । मूल्य की दृष्टि से भी सस्ता और सहज सुलभ है ।

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'इकड़ियाँ जेबी से' -  काव्य-संग्रह
कवि - सौरभ पाण्डेय
प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद।
मूल्य : व्यक्तिगत- रु.20.00,
संस्थागत - रु.120.00
e-mail : saurabh 312@gmail.com



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